बिहारीरगाकर ४१ ब = अब ॥ चौसर= मोतियों अथवा पूर्वी का चौलड़ा हार ॥ पातु = डलता है । । ( अवतरण )—विरह-ताप से पीड़ित नायिका का ताप सखी फूलाँ के गजरेचंदन, चाँदनी एवं व पवन से जुड़ाया चाहती है, क्योंकि इन पदाथो” से उसको संयोगावस्था में परम सुख मिलता था। उससे नायिका कहती है ( अर्थ ) [ के , ] अब [ तो ] ये चौसरचंदन[ तथा] चंद और ही थैति के हो गए हैं (सुखदायी न रद्द कर दुखदायी हो गए हैं ), [ और ] पति के विना (विरह में ) आति विपत्ति डालत हुआ ( आति उद्दीपन करता हुआ ) मंद मारुत [ तो ] मारे [ ही ]डालता है । चलन न पाव निगमम जणुउपज्यौ अति त्रा । कुचउतंगगिरिबर ग। मैना मैनु मवायु ॥ ८७ ॥ निगममणु =( १ ) वेदमग अर्थात् धर्मपथ ॥ (२ ) वाणिक्नपथ ॥ श्राड = भयडर ॥ मैना। राजपूताने के जंगलों में एक जाति के मनुष्य रहते हैं, जो कि मैना अथवा मीना कहलाते हैं। उनका काम प्राय: डाका डालना घर लूटना है ॥ मवढ = दृढ़ निवास ॥ ( अवतरण )- नायिका के कुओं की अति कामोदीपिनी शोभा का वर्णन नायक स्वगत करता है ( अर्थ ) कुवरूपी उतंग (ऊँचे ) गिरिवर ( पक्षाढ़ ) पर मदनरूपी मैना ने [ अपना ] दृढ़ स्थान जमाया है । [ अतः 1 बड़ा भय उत्पन्न हो रहा है, [ और ] जगद धर्मपथ-रूपी वणिक्नपथ नहीं चलने पाता ॥ त्रिपली, नाभि दिखाइकथूसिर ढकि, सकुचिसमाहि। रौली, अली की ओोट के, चली भली विधि चाहि ॥ ८८ ॥ सकुचि—यहाँ इसका अर्थ संकोच का मिष कर के होता है ॥ कर सिर ढकि हाथ को सिर ढाँकने के निमित्त उठा कर ॥ समाहि= सामना कर के । इसका अर्थ टीकाकारों ने प्रायः 'समा कर किया है, जो ठीक नहीं है ॥ अली की ओट के= सखी की आँखों की प्रोट, अर्थात् बचाव, कर के ॥ ( अवतरण ) नायक को देख कर नायिका ने जो मनोहारिणी तथा अपना अनुराग प्रकट करने घाणी चेष्टा की, उसका स्मरण अथवा वर्णन नायक स्वगत करता है ( अर्थ ) -[ वह मेरा ] सामना करसंकुचित हो ( संकुचित होने का ब्याज कर), हाथ से सिर ढाँक ( सिर ढाँकने के निमित्त हाथ उठा ), [ और इस क्रिया से अपनी ] त्रिबली, [ तथा ] नाभी दिखलासखी की छूट कर के ( सखी की आँखें बचा कर ) [ मु ] भली भाँति ( आँखें भर के ) देख कर गली में चली ॥ इस दोहे का अन्वय कुछ कठिन है । इसका भावार्थ यह है कि मेरा सामना होने पर उसने, १. मनु ( १.) । २. गहे (४ ), गहैं (५ ) । ३. करि ( २, ४) । ४. अली गली (५ )। ५. है (४, ५ )
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बिहारी-रत्नाकर