३६ बिहारीरताकर [हुए ] नयन [ उसके ] चित्त का रचेहाँ होना कहे ( प्रकाशित किए ) देते हैं । [ तात्पर्य यह है कि कुछ देर और मनइए, तो यह अवश्य मान जायगी ] ॥ पत्रा हाँ तिथि पाये वे घर के चहुं पास । नितप्रति पून्यौहैं ऐहै आनन-प-उजास ॥ ७३ ॥ ५षा = तिथिपत्र ॥ चर्वी पास चारों ओर पूर्शपूर्णिमा ॥ ( अवतरण )--नायिका के मुख की प्रशंसा सखी नायक से करती है, अथवा नायक स्वगत कहता है [ तिथि के जानने के दो साधन हैं –पक तो तिथिपत्रऔर दूसरा चंद्रमा के उजास होने का समय । पर ] उस [ नायिका ] के घर के आसपस [ केवल ] पने ही से तिथि पाई ( जानी ) जाती है, [ क्योंकि वहाँ तो ] मुख की चमक के उजाले से निस्यप्रति पूर्णिमा की रहती है ( रात भर चाँदनी का सा प्रकाश रहता है, ) [जिससे किस समय चाँदनी का उजाला प्रारंभ हुआ, यह लक्षित नहीं होता ] ॥ यसि सकोचदसबदनबससाँड दिखावति बाल । सियलौं सोधति तिय तनहूिँ तगनि-आगनि की ज्वाल ॥ ७४ ॥ सकोच ( संकोच ) = लध्जा, कुलकानि का विचार ॥ दसबदन ( दशवदन ) = दस घंह वाला, श्री रावण | यहां रावण का और नाम न रख कर ‘दसबदनइसलिए रखखा गया है कि संकोच दस दिशा से, अर्थात् दस मुख वाला हो करनायिका को अपने वश में किए हुए हैं । उसको नायक से मिलने नहीं देता ॥ सिय = रीता ॥ सोधति तपा कर शुद्ध प्रमाणित करता है । ( वतरण ) -पूर्वानुरागिनी नायिका की दशा सखी नायक से कहती है कि अब तक तो वह संकोच के वश मैं पड़े रहने के कारण आपसे मिल न सकी और अपने अनुराग को छिपाए रही, पर अब शनैः शनै: प्रेम के बढ़ जाने के कारण संकोच उसको दबा नहीं सकता, और उसका विरहाग्नि से संतप्त होना प्रकट हो गया है, जिससे प्रमाणित होता है कि श्राप पर उसका प्रेम पूर्ण तथा सचा है ( अर्थ )[ इतने दिनों तक ] संकोचरूपी दशवदन के वश में बस कर,[ और आप से मिलने में तथा अपना प्रेम-परिचय देने में असमर्थ रह कर, अब वह ] बाला [ अपने प्रेम का ] सच्चापन दिख लाती हैं, [ क्योंकि शव वह ] ली [ संकोच के वश के बाहर हो कर अपने ] शरीर को विरहाग्नि की ज्वाला से, सीताजी की भाँति, सोधती है (तपाती है, अर्थात् संकोच के वश में रहने का प्रायश्चित करती है ) ॥ १ • पाइंतु ( ५ )। २. या (२ )। ३. प्रह (४ )। ४. रहें ( १ ), रहति (२ )।५, ज्यों (२ ) ।
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बिहारी-रत्नाकर