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बिहारी-रत्नाकर

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विहारी-रत्नाकर ( अवतरण )-नायिका के मुख पर लाल बिंदु तथा केसर की पली आड़ देख कर नायक की आँखें अनुरागमय हो रही हैं। अपनी यही दशा वह स्वगत, अथवा नायिका की किसी अंतरंगिनी सखी से, कहता है | ( अर्थ )-लालबिंदु-रूपी मंगल, मुख-रूपी चंद्र, [एवं ] केसर की [ पीली ] आड़-रूपी बृहस्पति [इन तीनों ग्रहों ] को एक [ ही ] नारी (स्त्री-रूपी नाड़ी) ने साथ ही प्राप्त कर के [मेरे ] लोचन-रूपी जगत् को रसमय ( १. अनुरागमय । २. जलमय ) कर दिया। मंगल ग्रह का रंग लाल नथा बृस्पति का पीला माना जाता है, और मुख का उपमान चंद्र प्रसिद्ध ही है । दोहा पिय तिय सौं” हँसि कै कयौ, लखें दिठौना दीन । चंदमुग्वी, मुखचंदु हैं भैलौ चंद-समु कीने ॥ ४३ ।। भलो = पूर्ण रूप से, पूरा पूरा ।।। ( अवतरण )- सखी का वचन सखी से--- ( अ )- प्रियतम ने नायिका से, [ यह ] देखने पर [ कि उसने ] दिठौना दिया है, हँस कर कहा [ कि ] हे चंद्रमुखी, तूने [ अपने ] मुखचंद्र को [ इस दिठौने के द्वारा ] भला ( पूरा पूरा ) चंद्र के समान कर दिया। | कई टीकाकार ने अनेक शंका-समाधान कर के इस दोहे के अर्थ को बहुत घुमाया फिराया है। पर हमारी समझ में या अर्थ सीधा और कहर सी एड़ीनु की लाली देखि सुभाइ । पाइ महावरु देई को, आपु भई बे-पाइ ।। ४४ ॥ की हर ( कटुफल ) =इंद्रायन का फल ।। वे-पाइ = विना पांव की अर्थात् मति-पंगु, स्तब्ध ।। ( अवतरण )—सखी-सचन सखी से ( अर्थ )-इंद्रायन के फल सी एड़ियों की स्वाभाविक लाली देख कर [ नाइन ] स्वयं बेपाइ ( विना हाथपैर की अर्थात् मति-पंगु) हो गई । [ फिर भला ] पाँव में महावर [ दे, तो ] कौन दे ॥ खेलन सिखए, अलि, भलै चतुर अहेरी मार। कानन-चारी नैन-मृग नागर नरनु सिकार ।। ४५॥ भलै =भली भाँति । यहाँ इसका अर्थ बड़ी विलक्षणता से होता है । अहेरी=शिकारी ।। कामनचारी-( १ ) कान तक विचरने वाले अर्थात् दीर्घ । ( २ ) जंगल में विचरने वाले । प्राचीन परिपाटी तथा १. दीन्ह ( ४ ) । २. भले ( ४ ) । ३. कीन्ह ( ४ ) । ४. देन को ( ५ ) ।