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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर नायिका ) ने [ वह भाव समझ कर अपनी] आरसी, हरि (सूर्य) के सामने कर के, हृदय मैं लगा ली ( आरसी में सूर्य का प्रतिबिंब ले कर कुच-रूपी पहाड़ों के बीच में लगाने से यह सूचित किया कि सूर्य के अस्ताचल में छिपने पर, अर्थात् रात्रि को, मिलेंगी ) ॥ पाइ महावर ने क नाइनि बैठी आइ । फिरि फिरि,जानि महावरी,एड़ी मीड़ेति जाइ ॥ ३५ ॥ | महावरी–महावर के गादे रंग में रुई को भली भाँति भिगो कर नाइने गोली मी बना लेती हैं, और पाँव में महावर लगाते समय वे इसे ही मल मल कर रंग निचोड़ती और लगाती जाती हैं। इसी रुई की गोली को महावरी ( महावर-वटी ) कहते हैं। मीड़ति जाइ=मलती जाती है, मसलती जाती है । | ( अवतरण )-सखियाँ नाइन का परिहास करती हुई नायिका की एड़ी की ललाई की आपस मैं प्रशंसा करती हैं ( अर्थ )-पाँव में महावर देने को नाइन आ कर बैठी । [ पर नायिका की एड़ी का रंग पेसा लाल है कि उसको उंसमें तथा महावर की गोली में कुछ भेद नहीं प्रतीत होता, अतः भ्रम के कारण वह ] एड़ी को फिर फिर, महावर की गोली समझ कर, मीड़ती जाती है ॥ तोह, निरमोही, लग्यौ मो ही ईंहैं सुभाउ । अन आधै नहीं, आएँ आवते, अउ ।। ३६ ॥ ( अवतरण )-उपपति नायक को नायिका की उलाहने से भरी हुई पच्ची ( अर्थ )-हे निरमोही, मेरा हृदय तुझी से इस स्वभाव ( रीति ) से लगा है। [ कि तेरे ] न आने से [ वह भी मेरे पास ] नहीं आता ( मेरा चित्त ठिकाने नहीं रहता ), [ और तेरे ] आने से आता है। ( अतः निवेदन है कि तू] ( पधार ) ॥ नेहु न नैननु क कछु उपजी बड़ी बलाई । नीर-भरे नितप्रति रहैं, तऊ न प्यास बुझाइ ॥ ३७॥ नेह ( स्नेह )-यह शब्द यहाँ श्लिष्ट है । इसके दो अर्थ प्रेम तथा तेल हैं। अतएव इसमें श्लेष-मूलक रूपक है, जिससे इसका अर्थ यहाँ प्रेम-रूपी तेल हुआ ॥ बलाइ ( फ़ा० बला )= विपत्ति, आपत्ति ॥ | ( अवतरण )-पूर्वानुरागिनी नायिका अपने नेत्रों की व्यवस्था अंतरंगिनी सखी से बहती है ( अर्थ )-[यह ] प्रेम-रूपी तेल नहीं है, [ प्रत्युस मेरे ] नयना के निमित्त कोई बड़ी बलाय उपजी है। [क्योंकि यद्यपि मेरे नयन ] नित्यप्रति मीर ( आँसू) से भरे हुए रहते हैं, तथापि [इनकी ] प्यास ( दर्शन की तृषा ) नहीं बुझती ॥ १. देन (४, ५) । २. मोजत ( ४ ) । ३. यहै ( १, २, ५ ), इहे ( ४ ) । ४. अनायौ ( १ )। ५. श्रावति (१, २, ५)।