नहीँ आया है, अतः और दोहोँ से इसके यथार्थ रूप का पता नहीँ चलता। 'लीनौ' शब्द अवश्य ४४३वेँ दोहे मेँ आया है। उसका पाठ भी 'लीनौ' ही ठहरता है। इसलिए यहाँ 'दीनौ' ही पाठ रक्खा गया है॥ ईठि—इष्ट शब्द से ईंठ बनता है, जिसका अर्थ मित्र है। उसी का स्त्रीलिंग-रूप 'ईठि' है। इसका अर्थ हितकारिणी, अर्थात् सखी, है॥ दिठौना = काजल इत्यादि की काली टीकी, जो मुख पर इस अभिप्राय से लगा दी जाती है कि कुदृष्टि न लगे॥
(अवतरण)—दिठौना के कारण नायिका के मुख पर अधिक शोभा हो जाने का वर्णन नायक, परिह्रासात्मक वाक्य मेँ, उससे करता हैं—
(अर्थ)—[तेरी] सखी ने [तो तुझे दिठौना] योँ कह कर (यह विचार कर) दिया [कि तेरे] सलोने (लावण्यमय) मुख पर दृष्टि (कुदृष्टि) न लगे, [परइस] दिठौना देने से [तो तेरे मुख की ऐसी शोभा बढ़ गई कि उस पर दृष्टि (आँख) दूनी हो कर (औरभी अधिक) लगने लगी (जमने लगी)॥
चितवनि रूखे दृगनु की, हाँसी-बिनु मुसकानि।[१]
मानु जनायौ मानिनी, जानि लियौ पिय, जानि॥२९॥
हाँसी-बिनु = बिना किसी हँसी की बात की॥
(अवतरण)—मानिनी नायिका की चेष्टा से उसके मान को समझ कर खिसियाए हुए नायक की व्यवस्था सखी सखी से कहती है—
(अर्थ)—[नायिका की] रूखे दृगोँ की चितवन, [और नायक की] बिना किसी हँसी की बात ही की मुसकिराहट (अर्थात् खिसियानपने की मुसकिराहट) से [तू] समझ ले कि मानिनी ने [तो] मान जनाया, [और] प्रियतम ने [उसका यह मान जनाना] जान लिया (समझ लिया)॥
त्यौँ = ओर॥ समुहाति = सामने होती है॥ कविलनवी—पाँचोँ प्राचीन पुस्तकोँ के अनुसार इस शब्द का पाठ यही अर्थात् कविलनवी' ठीक ठहरता है। बिहारी के सबसे पहिले टीकाकार मानसिंह ने इसका अर्थ यह लिखा है—"कविलनवी, कठपुतरी श्रीसीताजी की मूर्ति श्रीराम चित्र-पट मैँ देखि पीठि फेरे।" कृष्ण कवि का पाठ तो निश्चित रूप से नहीँ ज्ञात होता, पर उन्होँने इस शब्द का अर्थ 'मंत्र की कटोरी' किया है। जब किसी की कोई वस्तु चोरी जाती है, तो उसका पता लगाने के लिए वे लोग, जिन पर संदेह होता है, मंडल बाँध कर बैठा दिए जाते हैँ, और उनके बीच मेँ एक कटोरी जल भर कर रख दी जाती है। तांत्रिक के मंत्र पढ़ने पर वह कटोरी चलायमान होती है, और सबकी ओर जा जा कर लौट आती है। पर जो उनमेँ से चोर होता है, उसके सामने ठहर जाती है। यह किया अब भी कोई कोई करते हैँ। इसको कटोरी चलाना कहते हैँ।