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बिहारी-रत्नाकर


लाज-गरब-आलस-उमग-भरे नैन मुसकात।[]
राति-रमी रति देति[] कहि औरै प्रभा प्रभात॥२३॥

(अवतरण)—प्रातःकाल सखी, नायिका के नेत्रोँ की कुछ विलक्षण ही शोभा से रात्रि मैँ रमी हुई रति के विधान को, अर्थात् विपरीत रति को, लक्षित कर के, कहती है—

(अर्थ)—लाज, गर्व, आलस्य और उमंग से भरे हुए [तेरे] नेत्र मुसकिराते हैँ, [जिससे तेरी कुछ] और ही [प्रकार की बनी हुई] शोभा रात्रि की रमी हुई रति [के प्रकार को] प्रातःकाल कहे देती है (तेरा विपरीत रति का करना प्रकट किए देती है)॥

लज्जा, गर्व तथा आलस्य, उमंग, इन विरुद्ध भावोँ का संघट्ठन, यही इस दोहे मेँ विलक्षणता है। गर्व तथा उमंग से विपरीत रति लक्षित होती है, और लज्जा तथा अलस्य से प्रमाणित होता है कि उक्त गर्व तथा उमंग रति ही के कारण हैँ॥

पति रति की बतियाँ कहीँ, सखी लखी मुसकाइ।[]
कै कै सबै टलाटलीँ[], अलीँ[] चलीँ[] सुख पाइ॥२४॥

टलाटलीँ = टालमटोल, व्याज, मिष॥

(अवतरण)—नायक और नायिका रंगमहल मेँ बैठेँ विनोद कर रहे थे। वहाँ सखियाँ भी उपस्थित थी। उसी समय नायक ने बातोँ ही बातोँ मैँ रति की इच्छा प्रकट की। नायिका ने यह सुन कर अपनी मुसकिराहट से प्रसन्नता लक्षित कराते हुए अंतरंगिनी सखी की ओर इस भाव से देखा कि अब उक्त कार्य का अवसर हो जाना चाहिए। यह लक्षित करके सब सखियाँ वहाँ से एक एक कर के, किसी न किसी मिष से, टलने लगीं। सखी का वचन सखी से—

(अर्थ)—पति ने रति की बातेँ कहीँ (बातोँ मेँ रति की इच्छा प्रकट की), [जिसको सुन कर नायिका ने] मुसकिरा कर अपनी [मुख्य सखी] को देखा। [यह देख] सब सखियाँ सुख पा कर, टलाटली (अनेक प्रकार के व्याज) कर कर के, [वहाँ से] चलींँ (हटने लगीँ)॥

सखी तथा अली (आलि) शब्द यद्यपि भाषा मेँ प्रायः एक ही अर्थ मेँ प्रयुक्त होते हैँ, पर बिहारी ने इस दोहे मेँ 'सखी' शब्द मैँ 'अली' की अपेक्षा कुछ मुख्यता रक्खी है॥

तो पर वारौँ उरवसी, सुनि, राधिके सुजान।
तू मोहन कैँ उर बसी ह्वै उरबसी-समान॥२५॥

उरबसी= उर्वशी अप्सरा। उरबसी = हृदय पर पहनने का भूषण विशेष॥

(अवतरण)—राधिकाजी ने श्रीकृष्णचंद्र को अन्य-रत सुन कर मान किया है। सखी मान छुड़ाने के निमित्त कहती है—

इस दोहे मेँ 'भली' तथा 'भले' शब्द व्यंग्यात्मक हैँ॥


  1. मुसिकात (१, २), मुसुक्यात (५)।
  2. देत (४, ५)।
  3. मुसुकाइ (४)।
  4. टलाटली (२, ४, ५)।
  5. अली (२, ४, ५)।
  6. चली (२, ४, ५)।