(अर्थ १)—हे बारी (भोली स्त्री), [तेरा] मन [जो लगा है, सो सफल (प्राप्ताभीष्ट) होगा। [तू इस] दुखदायी रोष को निवारित कर के अपनी बारी (पारी) सुहृदता (मैत्री) के वारि (वाक्य) से सींच (सरस कर)॥
पर अन्य व्यक्रियोँ की जान मैँ वह माली से यह कहती है—
(अर्थ २) हे वारी (माली), तेरी वाटिका मेँ लगा हुआ सुमन (फूल) सफल (फलयुत) होगा। [तू] अपनी वारी (वाटिका) सुहृदता के वारि (सानुकूल जल) से सीँच कर घाम के रोष (प्रचंड प्रभाव) को निवारित कर॥
हरिचरणदास ने लिखा है कि यह दोहा बिहारी का नहीँ है। यह उनका शुद्ध भ्रम है। एक तो यह दोहा सब प्राचीन पुस्तकोँ मैँ तथा हरिचरणदास के पूर्व की टीकाओँ मेँ मिलता है, और दूसरे ऐसी उच्च कोटि का है कि बिहारी के अतिरिक्त कोई बिरला ही इसका रचयिता हो सकता है। इसमेँ उन्होँने जो क्रमभंग दोष बतलाया है, वह उनको अर्थ न समझने के कारण भासित हुआ है॥
अजौँ (अद्यापि) = आज तक भी, अब तक भी॥तर्यौना—यह शब्द श्लिष्ट है। इसका एक अर्थ अधोवर्ती है और दूसरा कर्ण-भूषण विशेष, जिसको तालपर्ण तथा ताटंक भी कहते हैं, और भाषा मेँ उसी को तरकी कहते हैँ॥ श्रुति = (१) वेद की श्रुति। (२) कान॥ इकरंग = एक रीति पर, अविच्छिन्न रूप से॥ नाक बास = (१) स्वर्ग-निवास। (२) नासिका का निवास॥ बेसरि = (१) नासिका-भूषन्य विशेष। (२) वेसरी, खच्चरी, अर्थात् महा अधम प्राणी। वेसर संस्कृत मेँ खच्चर को कहते हैँ। उसी से बेसरी, श्रीलिंग रूप, बनता है। यहाँ यह रूप अत्यँत तिरस्कार तथा लघुता का व्यँजक है। लक्षणा शक्ति से 'बेसरि' का अर्थ यहाँ वेसरी-सद्दश महा अधम प्राणी होता है॥ मुकुतनु = (१) जीवन-मुक्त सखनोँ। (२) मुक्ताओँ॥
(अवतरण)—इस दोहे मेँ कवि बेसर का वर्णन करता हुआ श्लेष बल से सत्संग की प्रशंसा करता है। बेसर पक्ष मेँ इस दोहे का अर्थ यह होता है—
(अर्थ १)—आज तक तर्यौना (कर्ण-भूषण) एक ढंग से (ज्योँ का त्योँ) कानोँ का सेवन करता हुआ (अधोवर्ती अर्थात् अमुख्यस्थान-स्थित) तर्यौना ही रहा, [और] बेसर ने मोतियोँ का संग पा कर नाक-वास (१. नासिका का वास। २. उच्च पद) प्राप्त किया॥
कान की स्थिति पार्श्व भाग मेँ होने के कारण कवि ने उसे अमुख्य स्थान मान कर तर्यौनै को अमुख्यस्थान-स्थित वर्णित किया है, और नाक शब्द का अर्थ लक्षणा शक्ति से प्रधान, मुख्य, श्रेष्ठ इत्यादि लिया है। जैसे ऐसे वाक्योँ मेँ होता है—'यह देश सब देशोँ की नाक है॥'
सत्संग पक्ष मेँ इस दोहे का यह अर्थ होता है—