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बिहारी-रत्नाकर

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१६ विहारी-रत्नाकर किसी ] व्याज मे [व] छबीली [ मुझ को अपनः ] छाया क्षण मात्र छु। कर (छाती हुई ) चली ॥ ‘छबीली' शब्द को ‘छांह' का विशेषण भी मान सकते हैं। छःथा पृथ्वी पर पड़ती है। ‘छुवाद' शब्द से छाया के अंतिम भाग मात्र का स्पर्श और उससे नायिका का अपने सिर की छाया से नायक के पाव का स्पर्श करना, अर्थात् नायक को प्रणाम करने का भाव, व्याजत होता है । छाया छुअाने से यह भी सूचित होता है कि नायक उस को ऐसा प्रिय लगा कि यद्यपि वे उस को अपना शरीर ल जावरा न कु अः स की, तथापि अपनी छाया ही को उसके शरीर से छा कर उसने स्पर्शाभास का मुख प्राप्त किया ॥ जग-जुगति सिखए सबै भनौ महामुनि मैन । चाहत पिय अद्वैतता काननु सेवन नैन ॥ १३ ॥ | जग-जुगति ( योग युक्ति )—योग शब्द यहां श्लिष्ट है । इसके दो अर्थ हैं--( १ ) नायक को मिलाप । ( २ ) नित-वृत्तियों के निरोध द्वारा जीवात्मा का परमात्मा में लीन करना । जुगनि = उपाय । जोगनुगति =( १ ) प्रियतम-गंग की प्राप्ति के उपाय । २ ) योग-क्रिया करने के विधान ॥ पिय–इस शब्द के भी यहां दा भावार्थ हैं- १ ) प्रियतम, नायक । ( २ ) परमप्रेमास्पद परमात्मा | अद्वैतता=अमिनता । नायक पक्ष में इसका अर्थ अपने सामने से अलग न होने देना है, और ब्रह्म पक्ष में ब्रह्म तथा जीव का ऐक्य-भाव ।। काननु -इस शब्द के भी यहां दो अर्थ हैं-( १ ) कान को । इस अर्थ मैं यह शब्द कान शब्द के संबंधकारक का बहुव वन रूप है, जो कि कर्मकारक व प्रयुक्त हुआ है । ( २ ) वन । इस अर्थ मैं यह शब्द कानन शब्द के कर्मकारक का एकवचन रूप है । नैन ( नयन )—यह शब्द भी यहाँ श्लिष्ट है । इसका पहिला यर्थ नेत्र है, और दुसरा उचित प्राचार तथा संयम रखने वाले अर्थात् योगी । इन दोन अर्थों के संयोग से 'नैन' शब्द में श्लिष्टपद-भूलक रूपक हुग्रा ।। | ( अनतरण )-नवयौवना मुग्धा के नेत्र के सौंदर्य तथा बदावे को देख कर सखियाँ, उनकी प्रशंसा करती हुई, उससे परिहासात्मक तथा उत्साह-वर्द्धक वाक्य कहती हैं | ( अर्थ ) --[ अव तेरे ] नयन-रूपी योगी 'काननु' (श्रवण-रूपी धन ) का सेवन करने लगे हैं, मान मदन-रूपी महा योगी के द्वारा योग ( १. संयोग। २. योग-क्रियाओं) की सब युक्तियाँ सिखाए हुए (ये ] प्रिय-अद्वैतता ( १. प्रियतम से अलग न होना। २. परमात्मा से एकता ) चाहते हैं [एवं इनकी शोभा पर रीझ कर नायक सदैव तेरे सामने उपस्थित रहेगा ] ॥ यह सखियाँ का परिहास उसी प्रकार का है, जैसा सम-वयस्क युवतियाँ आपस में किया करती है कि अब तो तेरे मन में अार ही चाव चढ़ने लगे हैं, और तेरा प्रियतम तुझ पर मोहित हो रहा है। खरी पातरी कान की, कौने बहाऊ बानि । आक-कली न रली करै अली, अली, जिय जामि ॥ १४ ॥ १. सेवति काननि ( ४ ), सेवत कानन ( ५ ) । २. कौनु ( १ ), कौनि ( २ )।