फिरि फिरि चितु उत हीँ रहतु, टुटी[१] लाज की लाव।
अंग-अंग-छबि-झौँर मैँ भयौ भौँर की नाव॥१०॥
लाव = रस्सी, नाव बाँधने की लहासी॥ लाज की लाव = लखा-रूपी लाव, लज्जा से बनी हुई लाव अर्थात् लज्जा-रूपी लाव॥ छबि = छवि-रूपी नद। यहाँ आरोप्यमान नद का अथोंपक्षेपण है॥ झौँर—यह शब्द झूमर का रूपांतर है। किसी वस्तु के झूमते हुए गोलाकृति समूह को झूमर अथवा भौँर कहते हैँ। हेमचंद्र की देशी नाममाला मेँ यही शब्द 'झौँडेलिया' के रूप मेँ मिलता है। उसका अर्थ रास के सदृश एक नाच है, जिसमेँ अनेक व्यक्ति मंडल बाँध कर नाचते हैं॥
(अवतरण)—पूर्वानुरागिनी नायिका अंतरंगिनी सखी से अपनी स्नेह-दशा कहती है—
(अर्थ)—[नायक के अंग अंग की छवि के झूमर मेँ फँस कर मेरा] चित्त, भँवर की (भँवर मेँ पड़ी हुई) नाव बना हुआ, फिर फिर कर (घूम फिर कर), उसी ओर (नायक ही की ओर) रहता है, [और किसी ओर नहीँ जाता, क्योँकि उसको नायक की ओर से खीँचने वाली लञ्जा-रूपी रस्सी टूट गई है॥}}
नीकी[२] दई अनाकनी, फीकी परी गुहारि।
तज्यौ मनौ तारन-बिरदु बारक बारनु तारि॥११॥
अनाकनी = अनसुनी। आनाकानी देना बात को सुनकर भी न सुनना॥ फीकी = प्रभाव-रहित॥ गुहारि = पुकार॥ बिरदु = प्रशंसा, प्रशस्ति। तारन बिरदु = तारने वाले होने की विख्याति॥ बारक = एक बार ही, सर्वथा॥ बारनु = हाथी॥
(अवतरण)—भक्त का उलाहना भगवान् से—
(अर्थ)—[हे नाथ! आपने तो] अच्छी आनाकानी दी, [हमारी] पुकार फीकी पड़ गई; मानो हाथी को तार कर [आपने एक बार ही [अपना (तारने वाले कहलाना) छोड़ दिया॥
चितई ललचौहैँ चखनु डटि[३] घूँघट-पट माँह।
छल सौँ चली बुवाइ कै छिनकु छबीली छाँह॥१२॥
चितई—इस शब्द का प्रयोग बिहारी ने सब ठौर अकर्मक ही किया है। १४४, ३१९, ४९३ तथा ६२३ अंकोँ के दोहोँ मैँ इस शब्द का प्रयोग हुआ है, ओर सबमेँ अकर्मक ही प्रयोग है॥
(अवतरण)—नायक को देख कर नायिका ने जो अनुरागोत्पादक तथा अनुराग-व्यंजक चेष्टाएँ की हैँ, उन पर रीझ कर नायक स्वगत, अथवा उसको सखी से, कहता है—
(अर्थ)—घूँघट के पट मेँ से [पहिले तो उसने उट कर (स्थिरता पूर्वक, आँखोँ से आँखेँ भली भाँति मिलाकर) [मुझे ललचाते हुए चक्षुओँ से देखा, [और फिर