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॥ श्रीगणेशाय नमः ॥

दोहा

मेरी भव-बाधा हरौ राधा नागरि सोइ।
जा तन की झाँईँ परैँ स्यामु हरित-दुति होइ॥१॥

॥ श्रीगोपीजनवल्लभाय नमः ॥

टीकाकार का मंगलाचरण

कृपा-कौमुदी कौ करौ श्रीब्रजचंद प्रकास।
उमगै रतनाकर-हियैँ बानी-बिमलबिलास॥

भव = संसार। बाधा = रुकावट, विघ्न। भव-बाधा=संसार के विप्न अर्थात् दुःख, दारिद्र तथा अनेक प्रकार की चिंताएँ इत्यादि, जो बाधा-रूप में उपस्थित हो कर संसार के मनुष्योँ किसी उत्तम अभीष्ट का एकाग्रता-पूर्वक साधन नहीं करने देतीं। स्मरण रहे कि कवि-परिपाटी में दुःख-दारिद्रादि का रंग काला माना जाता है। 'भव-बाधा' का अर्थ टीकाकारों ने बहुधा जन्म-मरण का दुःख लिखा है। वह भी ठीक है। पर यहाँ यह शब्द ग्रंथ के मंगलाचरण में आया है। अतः यहाँ कवि की यही प्रार्थना विशेष संगत है कि हमारे अनेक प्रकार के चिंतादि-जनित विप्न का निवारण कीजिए, जिसमें ग्रंथ के पूर्ण होने में विघ्न न हो॥ झॉई—इस शब्द के यहाँ तीन अर्थ लिए गए हैं—(१) परछाँहाँ, आभा। (२) झाँकी, झलक। (३) ध्यान। प्राकृत-व्याकरण के 'ध्ययोर्कः', इस सूत्र के अनुसार 'ध्य' के स्थान में 'झ' हो कर 'ध्यान' शब्द से 'झाँई बन जाता है। त्रिविक्रम ने अपने प्राकृत-व्याकरण में 'ध्यान' शब्द का 'झाण' रूप लिखा भी है। 'न' के स्थान में बहुधा ‘इँ' भाषा के शब्दों में देखा जाता है, जैसे 'दाहिने' के स्थान पर ‘दायें। हेमचंद्र ने अपने प्राकृत-व्याकरण में जो निम्नलिखित छंद अपभ्रंश के उदाहरण में रक्खा है, उसमें ध्यात्वा का अपभ्रंश रूप 'झाइवि' प्रयुक्त हुआ है—

बहमुहु भुवण-भयंकरु तोसिअ-संकरु णिग्गउ रह-वरि चडिअउ।
चउमुहु छंमुहु झाइवि एकहिँ लाइव णावह दइवेँ घडिअउ॥