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प्रायन पास भेजा था । अमेरगढ़ के विनायक-पौरि तथा उसके सामने के प्रशस्त चबूतरे का दृश्य उसमें दिखलाया गया है। बिहारी के चित्र उसमें दो जगह हैं। एक तो बिहारी के आते समय का चित्र है, जिसके पीछे खासे ढाल वाला एक मिरदहा, जो बिहारी को बुलाने गया था, खड़ा है, और सामने कोई राजकर्मचारी विहारी का स्वागत कर रहा है । दुसरे स्थान पर कतिपय और कर्मचारियों के साथ बिहार को बैठा हुआ: चित्र है। इसमें बिहारी उक्त दोहा लिख कर एक वर्षधर ( खोजे ) को देते हुए दिलाए गए हैं, और वह वर्षवर वह दोहा ले जा कर किसी दासी को दे रहा है । इस चित्र के विषय में जयपुर में यह कहा जाता है कि जब बिहारी के दोहे के प्रभाव से राजा नवोढ़ा रानी के प्रेम-पाश से मुक्त हो कर बाहर निकल आए, और अपना काम-काज करने लगे, तो चौहानी रानी ने प्रसन्न हो कर झा दी कि उस समय की घटना का ज्यों का त्ये चित्र बनाया जाय। यस, उसी प्रज्ञा के अनुसार उक्न चित्र तैयार किया गया । उसके नीचे के भाग में दोनों पाश्र्वो पर दो दो अंक लिखे हुए हैं, अर्थात् वाम पाश्र्व पर १६ तथा दक्षिण पाश्र्व पर १२। इन चारों अंके को मिला कर हम इसको विक्रम संवत् १६९२ अनुमानित करते हैं । उक्त चित्र बहुत बड़ा है । उसे छोटा कर के पुस्तक में देने योग्य बनवाने में बिहारी के चित्र के बहुत छोटे हो जाने की आशंका थी । अतः हमने उक्त चित्र में से केवल बिहारी का खड़ा चित्र अलग कर के बिहार-रत्नाकर में दे दिया है । मिज़ राजा जयशाह का भी एक चित्र पाठकों के अवलोकनार्थ इस पुस्तक में दिया गया है। यह वित्र भी हमारे पंडित जी जयपुर से लाए थे । | अब हम श्रीमान् महाराजाधिराज दरभंगा-नरेश, श्रीमान् महाराजाधिराज काशी-नरेश, श्रीयुत कर्नल विंध्येश्वरीप्रसाद सिंह सी० आई० ई० तथा स्वर्गवासी श्रीमान् महाराजाधिराज सवाई जयपुराधीश एवं जयपुर के उन सजनों को, जिनका नाम ऊपर कथन किया गया है, इस संस्करण की सामग्री एकत्र करने में सहायता पहुँचाने के निमित्त, अनेकानेक हार्दिक धन्यवाद देते हैं, और राजराजेश्वरी श्रीमती महारानी अवधेश्वरी की असीम कृतज्ञता स्वीकृत करते हैं, जिनके व्यय तथा उत्साह-प्रदान से यह टीका संपादित हो सकी। अपने वि० भू० पंडित श्री रामनाथ ज्योतिषी को भी हम, कष्ट उठा कर अनेक अमूल्य प्रतियाँ संग्रह धरने के निमित्त, साधुवाद का अधिकारी समझते हैं । माधुरी तथा गंगापुस्तकमाला के संपादक, हमारे मित्र श्री दुलारेलाल जी भार्गव ने इस ग्रंथ को प्रकाशित करने में बड़ा उत्साह प्रदर्शित किया, और इसके संशोधन में बहुत बड़ी सहायता दी, जिसके निमित्त हम उनको अनेकानेक धन्यवाद देते हैं, और इस संस्करण की भूल-चूक के निमित्त अपने सज्जन पाठक से क्षमा-प्रार्थना करके यह प्राक्कथन समाप्त करते है ॥ श्री राजसदन, अयोध्या श्री जगन्नाथदास भाद्र-कृष्णजन्माष्टमी, भौमवार, संवत् १९८२ वि॰ । ( रत्नाकर ) ( तारीख ११ अगस्त, सन् १९२५ ई०) )