पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/३८२

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उपस्करण-२ जा दिन हैं देखे दृगनि, भाजी लाज बजाइ । सखी, साँवरे रूप की सोभा कही न जाइ ॥ २१ ॥ निकट पाट कंदावली बँधी कनक सुभ-बेग । सोहत जनु बिजुरी किये सारद-ससि-परवेप !! १२२॥ अमी, हलाहल, मद-भरे, सेत, स्याम, रतनार ।। जियत, मरत, झुक झुक परत, जिहि चितवत इक चार॥ २३॥ सघन कुंज जमुहाति तिय, उठी प्रात तज्ञ सैन । लगे गुलाब खुसामदी चट चट चुटकी देन ।। १२४॥ ठाढ़ी मंदिर में लखे मोहन-दुनि सुकुमारि । तन थाकं हूँ ना थकै चख चित चतुर निहारि॥ २५ ॥ गुहि लैब अपनी हरा, छोड़। लाल, सुभाउ । मेरौ टुनहाई बहू पखी जात है नाउ ॥ २६॥ जो संपति बहुतै बढे, आनँद उपजै चित्त । ए तीनों न बिसारियै हरि, अरि, अपनो मित्त ॥ २७॥ नैन-तुरंगम, अलक-छबि-बुरी लगी जिहिँ आइ । तिहिँ चढ़ि मन चंचल भयो, मति दीनी विसराइ ॥ १२८॥ अरे हंस, या नगर में जैयो आपु बिचारि । कागनि सी जिन प्रीति करि कोकिल दई विडारि ॥ १२ ॥ नंद-नंद, गोविंद जै, सुख-मंदिर गोपाल । पुंडरीक-लोचन ललित, जै जै ऋण रसाल ॥ १३० ।। ताहि देखि मन, तीरथनि विकटनि जाइ बलाइ। जा मृगनैनी के सदा बेनी परसति पाइ ॥ ३१ ॥ कही बात सव ते भली, जौ कहि अवै दाइ । एक बात इाथी बँधे, एक वाँधियतु पाइ ॥ ३२॥ साहस करि कुंजनि गई, लख्यो न नंद-किसोर । दीप-सिखा सी थरहरी लगे बयार-झकोर ॥ १३३॥ मनमोहन के मिलन के करति मनोरथ नारि । धरै पौन के मामुहं दिया भौन को वारि ॥ ३४ ॥ केलि करें मधु-मत्त जहँ घन मधुपन के पुंज ।। सच न करि ते सारं सखी, सघन वनकुंज ॥ १३५॥ १. चल भोर ।