पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/३८१

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१३ घिद्वारी-रत्नाकर मन-मरकट के पग खुभ्यो निपट निरादर-खोभ । तदपि नचावत सठ, हठी, नच कलंदर लोभ ॥ १०५ ।। रह्यो न काहू काम को, सतें न कोऊ लेत । बाजू टूटे बाज कौं साहब चारा देत ॥ १०६ ॥ तीन बार लाला, तुम्नैं पठे दई अलि-साथ। चोरीम-सुगंधि की उघरि गई तिहिं हाथ ॥ १०७॥ फुल आग , गोद ले, पतरी दै घर आव । लाल, कही वारी नहीं करन-फूल पहिराव ॥ १०८।। गाइ नए गाइन बड़े, ले बैठ कर बीन । ए गाहक करबीन के, राग राग नवीन ॥ १०६ ।। चिनग फुही, लपेट छुटा, घटा धूम-विस्तार । पावस-रितु मानस विनु होत सकार ककार ॥ १० ॥ गुंजत अगुलि दे दसन, लखि कंजनि सकुचाइ । मूदति पति-दृग दाहिने, रति विपरीत लखाइ ॥ ११ ॥ परी दे री स्रवन, सुनि, तेरी अलक बटोरि । चढ़ि न सकत है चित्त-नट निपट चीकनी डोरि ॥ ११२ ॥ जे हरि स्वगपति सीस धरि, हर ध्यावत धरि ध्यान । ते ६ रि जहरि-तर किए हूँ राधे करि मान ॥ ११३ ।। नैन किरकिरी जो परे, कर मांजत जिय जाइ । देख प्रेम सुभाव रसमूरति नैन समाइ ॥ ११४ ॥ परी परी लौ चढ़ि अटा, निपट परी बढि जोति । फिरती दीठि दई छिनकु, दीठि विचल चल होति ॥ ११५॥ बधू-अधर की मधुरता बरनत मधु न तुलाइ । लिम्रत लिखक के हाथ की क्रिलिक ऊख है जाइ ॥ ११६॥ मारे काहू मीत के भूलि गए सब जैव । आप कहूँ, आसा कहूँ, तसवी कहूँ, कितेब ॥ ११७ ॥ हॅस हाँस रस-बस करि लयौ लँगर छोहरी-दीठि । निपट कपट उर देखियत ऑखिनि हूँ म पीठि ॥ ११८ ॥ सस्वी सिखावत मान-बिधि, सैननि बरजति बाल । हेर कहै, मो हीय में बसत बिहारी लाल ॥ ११६ ॥ बारनि की बुरका कियौ सव अॅग लियौ छिराइ । अगुठा दोख पखी नहीं, अंगुठा गई दिखाइ ॥ १२० ॥