पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/३७४

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अधिक दोहे हां आई सुनि के सखी, डलिया दावि दुकूल । हा ! हा ! हँसि, देख भरत कौन भाँति के फूल ॥ १ ॥ मोह सा सतरराति हो, जान देहु यह जामु । हाथ पकरि के सापि वशमी के कर कामु ॥ २ ॥ वाकौ मनु फाट्यौ हुतो, ही दे लाई टीभ । बोलत हैं। जिदं विसु वयो, निपट पानी जीभ ॥ ३ ॥ नेहु निवाई हाँ, बनै, सोचें बने न । श्रान । तनु दै, मनु है, सीसु है, प्रेम न दीजै जान ॥ ४ ॥ गही टेक सो ना तजे, चंचु जीभ जरि जाइ । मीठों कहा अंगार कौ, ताहि चकोर चबाई ॥ ५ ॥ क्या के रूठौ, क्या भुको, क्या के होउ उदास । प्रेम-पराए प्रान ए परे रही पिय-पास ॥ ६ ॥ आड़े परिहैं खेलत, बुरी भाँति है चाल । बासी रिस न बसाइये, हाँसी होइन, लाल ॥ ७ ॥ विधुवदनी मोसा कहत, में समुझी निज़ बात । नैन-नलिन पिय, रावरे न्याइ निरखि नै जात ॥ ८ ॥ में तब हूँ वरजी हुती, नहीं रोमं को काम । ताती बातें हैं कहाँ, सीरे है गए स्याम ॥ ६ ॥ कोटि कुटिलता छाँड़ि के कियो प्रेम-प्रतिपाल । टेढ़ी मैं हं ते कराँ, सूधे हे गए लाल ॥ १० ॥ आनन उपटे ओप अति, कसे कंचुकी लेति । का पर कोर्षे कामिनी जरु नैननि देति ॥ ११ ॥ कही वयन बिसु ही गई फिरि चितवन ३६ ओर।। कुँवर-कंरजै गड़ि रही ए कजरारी कोर ॥ १२ ॥ मानति मोसी क्यों नहाँ छई छबीली छाँह । प्रेम प्रगट भयौ हे सखी, आभा अखिनि माँह ॥ १३ ॥ प्रेमु दुरायौ ना दुरे, नैना देहिं बताइ । छैरी के मुंह री सखी, क्यों हूँ न कुम्ही माइ ॥ १४ ॥ १. ससि । २. तुम साँचो यह । ३. निरखत हाँ। ४. ध । ५. अज़रा । ६. क्य रु कुम्हैडौ ।