पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/३६

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মাথন अतः ऐसे शब्द बहुत न्युन रह जाते हैं, जो अधिक प्रतियों में इकारांत लिखे हों, और ऐसे बहुत अधिक, जो अधिकांश प्रतियों में उकारांत । इस गणना से भी सतसई में ऐसे रूपों का पाठ-साम्य के अनुरोध से उकारांत ही स्वीकृत करना समीचीन प्रतीत हुआ । इसके अति रिक पाठ-साम्य की दृष्टि से विचार करने पर ऐसे शब्दों के अकारांत तथा इकारांत रूप का निर्वाह सतसई भर में होता दिखाई नहीं दिया, जैसे-६७५, ४२६ इत्यादि दोहों में। पर उनके उकारांत रूप रखने में कहीं कोई बाधा नहीं पड़ी, अतः सतसई भर में ऐसे शब्द उकारांत ही रखे गए हैं। केवल दो एक स्थानों पर वे असावधानी से इकारांत छप गए हैं, और ३२०-संख्यक दोहे में ‘दृगनि' शब्द जान बूझ कर इकारांत छोड़ दिया गया है, जिस का कारण टीका में दिखा दिया गया है। पर हमारी समझ में उसको भी पाठ-साम्य के अनुः रोध से ‘दृगनु' ही होना युक्र है ॥ | कारणचक ऐसे शब्द, जैसे–चलें, परें, क्रीन, लखें इत्यादि, जिनका अर्थ, चलने से, चलने में, चलने पर इत्यादि होता है, सतसई तथा प्रजभाषा के अन्यान्य ग्रंथों में कई रूप से लिखे दिखाई देते हैं। इनके बिहारी-स्वकृत रूपों के निर्धारित करने के निमित्त भी पाँचों प्रतियों में आए हुए रूपों की संख्याओं की जाँच की गई, और अनुप्रास में आए हुए ऐसे रुपों पर भी विचार किया गया, जैसे १८४ अंक के दोहे के ‘क’ शब्द पर। इन अनुसंधानों से ऐसे शब्दों का 'चलें, परै' इत्यादि रूप स्वीकृत करना युक्त प्रतीत हुआ । फिर ऐसे रूपों की व्युत्पत्ति पर विचार किया गया, तो ज्ञात हुआ कि ये रूप संस्कृत के क्रियार्थक संशा ‘चलन', 'पतन' इत्यादि अथवा भूतकालिक कृदंत 'चलित', 'पतित' इत्यादि के सामान्यकारक के रूप के-अर्थात् 'चलनहिं, पतनहिँ' अथवा 'चलितह, पतितहि' इत्यादि के-रुपांतर मात्र हैं, जो करण-कारक के अर्थ में प्रयुक्त किए जाते हैं, जैसे संस्कृत के 'चलनेन, पतनेन' इत्यादि । 'चलनहिँ' अथवा 'चलितहिं” इत्यादि से चले' इत्यादि रूप उसी प्रकार बन जाते हैं, जैसे 'राम' से 'रामें' । ऐसे शब्दों के ‘चले’, ‘परें' इत्यादि रूप ही प्राय ठहरते हैं ॥ । बिहारी-रत्नाकर की पाठ-शुद्धि के निमित्त इसी प्रकार प्रत्येक शब्द के यथार्थ रूप पर यथाशक्ति भली भाँति विचार किया गया है, जिसके निदर्शनार्थ दो चार शब्दों की संशोधनविधि ‘स्थालीपुलोकन्याय' से ऊपर कथन कर दी गई है। यद्यपि पाठ की शुद्धि तथा साम्य में यथाशक्ति श्रम किया गया है, पर फिर भी कहीं कहीं असावधानी अथवा भ्रम से अशुद्धियाँ तथा पाठ-विषमताएँ रह गई है। कहीं उकार छूट गया है, तो कहीं अधिक लग गया है। कहीं हैं के स्थान पर 'ए' अथवा 'ए' के स्थान पर हैं' छप गया है, तो कहीं 'ए' के स्थान पर 'ये' अथवा 'ये' के स्थान पर 'ए' हो गया है, इत्यादि । यद्यपि ऐसी अशुद्धियों की संख्या अधिक नहीं है-वे उँगलियों पर गिनी जा सकती हैं, तथापि हम उनके निमित्त प्रिय पाठक से क्षमाप्रार्थी हैं। हमारा विचार था कि पुस्तकांत में एक शुद्धाशुद्ध पत्र लगा दिया जाय, पर फिर यह अचेत प्रतीत हुआ कि दूसरे संस्करण में फिर से और भी भली भांति विचार कर के पाठ-परिवर्तन किया जाय, इस संस्करण में जो कुछ है, वही रहने दिया जाय ॥