पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/३५

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३६ बिहारी-रत्नाकर तथा कर्मकारक * एकवचन का प्रयोग उकारांत रूप में किया है, और इस नियम का निर्वाह उन्होंने, केवल दोहों के मध्य ही में नहीं, जहाँ कि अकारांत को उकारांत अथवा उकारांत को अकारांत लिखने में कोई बाधा नहीं पड़ती, प्रत्युत तुकांतों में भी किया है, जहाँ अंन्यानुप्रास लेख-प्रणाली को स्वेच्छाचारिणी नहीं होने देता, जैसा कि ११८, ६२५, ६७५ इत्यादि अंकों के दोहों से विदित होता है । सतसई में इस नियम का निरीक्षण करने पर इस बात पर ध्यान गया कि अपभ्रंश में भी उसी प्रकार के अकारांत पुंलिग तथा नपुंसकलिंग शब्दों के कता तथा कर्मकारक के एकवचन रूप उकारांत होते थे। अतः ऐसे रूपों को इस संस्करण में उकारांत स्वीकृत करना समुचित समझा गया, और तदः नुमार वर्तमानकालिक कृदंत के एकवचन के रूप की भी जॉच करके वह भी उकारांत ही स्वीकृत किया गया, जैसे-१० अंक के दोहे में 'रहतु, २७ अंक के दोहे में 'बेधतु, ३६ अंक के दोहे में 'आवतु' इत्यादि । इस उकारांत-प्रथा के ग्रहण करने में इस बात को भी विचार कर लिया गया है कि ऐसे पाठ मे पुस्तक भर में कहाँ पाठ-साम्य में बाधा नहीं पड़ सकनी, प्रन्युन विना इस परिपाटी के ग्रहण किए पाठ-साम्य स्थापित नहीं हो सकता ॥ सामान्यकारक के बहुवचन को रुप, सतसई की भिन्न भिन्न प्रतियों में, कहाँ इकारांत और कहीं उकारांत देखने में आता है, जैसे-दृगनि, दृगनु, भागनि, भागनु इत्यादि। कहाँ कहाँ ऐसे शब्द अकारांत लिखे हुए भी मिलते हैं, जैसे-दृगन, भागन इत्यादि । हमारी प्रथम प्राचीन पुस्तक में, जैसा कि ऊपर कहा गया है, केवल ४६३ दोहे हैं। उनमें ऐसे शब्द अनुमान से १३०-१३५ स्थानों पर आए हैं। उनमें से २८-३० स्थानों पर तो वे अकारांत लिखे हैं, ४ स्थानों पर इकागंन तथा शेष स्थान पर उकारांत । अकारांत रूपों के विषय में तो यह कहा जा सकता है कि लेखक की असावधानी से उनमें उकार लगाना रह गया है, और इकारांत रुप इतने कम हैं कि उनको भी लेखक का प्रमोद मानना ही समुचित है । अतः प्रथम पुस्तक के अनुसार सनसई में ऐसे कपों का उकारांत प्रयोग सिद्ध होता है। द्वितीय पुस्तक में ऐसे शब्द अनुमान से २६ स्थानों पर अकारांत, १७ स्थानों पर उकारांत तथा १३६ स्थानों पर इकारांना मिलते हैं । अतः इस पुस्तक के अनुसार ऐसे शब्दों का इकारांत होना कहा जा सकता है। तृतीय पुस्तक में ऐसे शब्द ३१ स्थानों पर अकारांत, ४० स्थानों पर प्रकारांत तथा ५६ स्थानों पर उकारांन हैं, और चतुर्थ पुस्तक में ६६ स्थानों पर अकारांत, ३६ स्थानों पर इकारांत तथा ८१ स्थानों पर उकारांत हूँ। पाँचव पुस्तक में ऐसे शब्द ८१ स्थानों पर अकारांत, ३१ स्थानों पर इकारांत तथा ७४ स्थानों पर उकारांत हैं । पाँचों पुस्तकों को मिला कर ऐसे शब्द २२३ स्थानों पर अकारांत,२५० स्थानों पर इका त तथा ३२८ स्थानों पर उकारांत ठहरते हैं *। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि जो शब्द एक प्रति में इकारांत लिस्था मिलता है, वह अन्य प्रति में उकारांत दिखाई देता है।

  • स्थान की संख्याएँ को दी गई हैं, उनकी जाँच भली भाँति नहीं की गई है। अतः संभावंता है कि इनमें दो एक संस्थाओं की भूल हो । पर जो निकर्ष उनसे निकाला गया है, उसमें इस अस्प भूख से किसी भी की संभावना नहीं है।