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जौ ल लखौं न, कुल-कथा तौ लै ठिक ठहराइ । देखें आवत देखि हाँ, क्यौं हूँ रह्यौ न जाइ । ७०९ ॥ ( अवतरण )-उच्च कुलोपयुक्न चरण-लजा, परपुरुप को न देखना इरग्रादि-की शिक्षा देती हुई सखी से नायिका कहती है ( अ )-[ तेरी यह ] कुलोचित [ आचरण की ] कहानी तभी तक ठीक ठहरती है। (उचित जान पड़ती है, अथवा हृदय में ठहरती है ), जब तक [ मैं नायक को ] नहीं देखती । [ पर नायक के ] देखने पर देखे ही आता है ( देखते ही बन पड़ता है), [ और विना देखे ] किसी प्रकार रहा नहीं जाता ॥ सामाँ सेन, सयान की सबै साहि के साथ। बाहुबली जयसाहिजू, फते तिहारै हाथ ॥ ७१० ॥ जयसाहि= बिहारी कवि के आश्रयदाता, ग्रामेरगढ़ के महाराज जयसिंह । उनको बादशाह के दरबार से 'शाही' की उपाधि मिली थी । ‘जयशाही’ का शब्दार्थ विजय पर शाही, अर्थात् प्रभुत्व रखने वाल, हो सकता है, शीर निहारी ने इस दोहे में बादशाह की जय का उनके हाथ में, अर्थात् उनके वश में, होना कहा है, अतः ‘जयसाहि' शब्द का प्रयोग यहां साभिप्राय हे ।। ( अबतरण )-काव राजा जयशाही की स्तुति करता है-- ( अर्थ )-[ यद्यपि ] सेना [ तथा ] सयानपने ( युद्ध-कौशल ) [ इत्यादि के सब ही सामान ( सामग्री ) शाह ( दिल्ली के बादशाह शाहजहाँ) के साथ उपस्थित ] हैं, [ तथापि, ] हे वाहुवली ( अपनी भुजाओं के द्वारा बली ) जयशाहीजी, [ बादशाह की ] फ़तह (विजय ) तुम्हारे [ ही ] हाथ में है ॥ इस दोहे मैं कई एक पक्षियं के नाम मुद्रालंकार की रीति पर आए हैं-( १ ) सामाँ ( श्यामा )=पक्षी विशेष, जिसका लाग उसकी मीठा बोली सुनने के निमित्त पालते हैं। ( २ ) सेन ( श्येन ) =एक प्रकार का बज । ( ३ ) सयान ( सचान, संसान =बहरी । ( ४ ) बै=बया पक्षी, जो खेल सिख जाने के लिए पाला जाता है । ( ५ ) साहि ( शाह )---फ़ारसी में शाह एक प्रकार के बाज़ को कहते हैं । ( ६ ) फते ( फ़तहबाज़ )-फारसी में फ़तइबाज़ एक प्रकार के बड़े बाज़ को कहते हैं। यौं दल काढे बलक हैं हैं, जयसिंह भुवाल । उदर अघासुर कैं परै ज्यौं हरि गाई, गुवाल ।। ७११ ॥ ( अवतरण )-कवि राजा जयसिंह की शुश्ता तथा कार्य कुशलत' की स्तुति करता है( अर्थ )-हे जयसिंह भूपाल, तूने [बादशाही] दलों ( सेनाओं) को { जो कि शत्रुओं १. लखें ( ३ ), लखे ( ४, ५ ) । २. ठिक तौ लॉ ( ३, ४, ५ ) । ३. हूँ ( २ ) ।