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बिहारी-रत्नाकर

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विहारी-रत्नाकर २९३ ( अवतरण )-सखी नायक से नायिका की हीरा-जड़ी बँदी की शोभा की प्रशंसा करती हुई उत्प्रेक्षा-द्वारा उससे मिलने का अति उपयुक्त अवसर व्यंजित करती है ( अर्थ )-[इस समय उस] स्त्री के मुख पर हीरा-जड़ी बेंदी देख कर [ देखने वालों के ] विनोद (आनंद) बढ़ते हैं। [ उसकी शोभा ऐसी शुभ तथा सुहावनी लगती है, ] मानो पूर्ण चंद्रमा ने सुत-स्नेह से बुध को [ अपनी ] गोद में लिया है [ अतः इस समय उससे मिलने में आपको विविध आनंद, सौख्य तथा पुत्र-प्राप्ति का लाभ है ] । | इस उत्प्रेक्षा से चतुर सस्ती, एक प्रह-संस्था विशेष पर ध्यान दिलाती हुई, नायिका के सौंदर्य का वर्णन करती है। उसका अभिप्राय यह है कि जो आनंद तथा सुख ऐसी ग्रह-संस्था में होता है, वही इस समय उसके मिलने में सुलभ है । इस प्रह-संस्था के विषय में ज्योतिष का यह वचन है चन्द्रस्यान्तर्गते सौम्ये केन्द्रलाभत्रिकोणगे । स्वधैं नवांश के सौम्ये तुङ्गे वा बलसंयुते ॥ ३१ ॥ धनारामं राजमानं प्रियवादिताभकृत् ॥ विद्याविनोदसद्धी ज्ञानवृद्धिः सुखावहः ॥ ४० ॥ संतानप्राप्ति संतोष वाणिज्यादनलाभकृत् ॥ वाहनछत्रसंयुक्तं नानालंकारभूषितम् ॥ ४१ ॥ | ( बृहत्पाराशरहोरा, पूर्व खंड, अध्याय ३८ ) इस प्रह-संस्था का होना तो सखी ने “जियो बिधु पूरन बुधु गोद' कह कर व्यजित किया, और इस संस्था का केंद्र में होना स्त्री-मुख मैं हीरा-जड़ी बँदो का होना कह कर कह दिया, यक ची का स्थान सातदाँ माना जाता है, जो कि केंद्र-गत है। इसी प्रकार का कथन ६९० अंक के दोहे में भी है। गोरी गदकारी परें हँसत कपोलनु गाड़ । कैसी लसति गवॉरि येह सुनकिरवा की आड़ ॥ ७०८ ॥ सुनकरवा ( स्वकीटक )--यह एक प्रकार का सुनहला परदार कीड़ा होता है । इसके पर पॉखी के परों के प्रकार के तथा बड़े चमकीले, हरे रंग के होते हैं, जिनके काट काट कर स्त्रियाँ गोल अथवा लंबी बॉदयाँ बना लेती हैं। इनको लोग कारचौत्र के काम में भी सिलवाते हैं। ( अवतरण )-किसी ग्राम वधूटी की स्वाभाविक शोभा का वर्णन कोई रसिक स्वगत करता है ( अर्थ )-[अहा !]यह गारी गदकारी (गुदगुदे, अर्थात् कुछ मांसिल, शरीर वाली ) आँवारी (प्राम-वधूटी ) हँसते समय [ अपने ] कपोल पर गाड़ ( गड़हा ) पड़ जाने से [ तथा ] सुनकिरया [के पंख ] की आड़ ( आड़ी बेंदी ) से ( के कारण ) कैसी लसती (शेोभा देती ) है ॥ १. हँसति ( २ ) । २. इह ( ३, ५ ) । ३. सनुकिरवा ( २, ५), सनिाकरवा ( ३ ) ।