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बिहारी-रत्नाकर

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૨૯૨ बिहारी-राकर रह जाती हैं ( हार जाती हैं), [ पर ये उस ओर लज्जा-वश] नहीं चलते । [ अतः मुझे] दर्शन की साध (श्रद्धा, अभिलाषा ) ही रहती है ( बनी रहती है), [ क्योकि मेरे ] नयन [ नायक से सामना होने पर ] सीधे (उसके सामने, अथवा मेरे वश में ) नहीं रहते ॥ बेसरि-मोती, धनि तुहीं; को बूझै कुल, जाति । पीयौ करि तिय-ओठ को रसु निधरक दिन राति ॥ ७०६ ।। ( अवतरण )–नायक किसी नायिका पर अनुरङ्ग हो कर उसके अधरामृत-पान की अभिलाषा में आतुर हो रहा है। अतः, बेसर-मोती को उसके अधर पर विकास करते देख, उससे ईर्षा-सूचक वन, नायिका को सुना कर अपनी अभिलाषा व्यंजित करता हुआ, कहता है ( अर्थ )-हे बेसर के मोती ! तु ही धन्य है । [ तेरे ] कुल [ तथा ] जाति की कौन जॉच करता है [ कि तू, कुल तथा जाति के अनुरोध से, इस योग्य है अथवा नहीं कि इस परम सुंदरी के अधर-पान का अधिकारी हो सके। यदि इस बात की जाँच होती, तो त् इस योग्य न ठहरता, क्योंकि तेरी उत्पत्ति तो सीप से है, जो कि कोई श्रेष्ठ पदार्थ नहीं है, और जाति में तू एक हड्डी का टुकड़ा मात्र है ] [ इस सुंदर ] श्री के ओठ का रस [ जो मुझ ऐसे उच्च कुल तथा श्रेष्ठ जाति वाले को भी अप्राप्य है ] दिन रात निधड़क ( निःशंक, अर्थात् इस बात की शंका से रहित हो कर कि कहीं कोई देख न खे, और मैं हटा दिया जाऊँ) पिया कर ॥ यह दोहा किसी नीच तथा कुजति मनुष्य के उच्च पद पर पहुँचने पर अन्योकि भी हो सकता है। तिय-मुख लाख हीरा-जरी बँदी य” बिनोद । सुत-सनेह मान लियौ बिधु पूरन बुधु गोर्दै ।। ७०७ ॥ हीरा-जरी= हीरे के नग से जड़ी हुई । सुत-सनह = पुत्र-स्नेह से ।। बिधु पूरन = पूर्ण चंद्र ने । बुधु= एक ग्रह विशेष, जो कि चंद्रमा का पुत्र माना जाता है । इस ग्रह का रंग सामान्यतः हरित कहा गया है। परंतु मत्स्यपुराण में जन्म के समय इसका ‘चंद्र-सान्निभ' होना लिखा है । यथा तारोदराद्विनिष्क्रान्तः कुमारश्चन्द्रसन्निभः ।। सवर्थशास्त्रविद्धीमान् हस्तिशाम्रप्रवर्तकः ॥ २ ॥ ( मत्स्यपुराण, २४वां अध्याय ) |. कदाचिन् यहाँ देख कर केशवदासजी ने भी नाक के मोती की उपमा चंद्र-सुत अर्थात् बुध से दी है । यथा | किधीं गोद चंदजू के खेलै सुत चंद के । | ( कविप्रिया, प्रभाव १५, छंद ५५ ) १. विनोदु (४) । २. बुध ( ४) । ३. बिधु ( ४ ) । ४. गोदु ( ४ ) ।