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बिहारी-रत्नाकर विहँसती (सुसकिराती ) [ और ] सकुचाती हुई सी, भीगे हुए वस्त्र से ( भीगा हुआ वस्त्र पहने हुए) तट को ( तट की ओर ) चली ॥ बरन, बास, सुकुमारता, सब विधि रही समाइ । पैखुरी लगी गुलाब की गात न जानी जाइ ॥ ६९४ ॥ ( अबतरण )—सखी नायक से नायिका के शरीर की हलकी ललाई, सुगंधि तथा कोमलता का वर्णन करती है ( अर्थ )-[उसके] गात्र में गुलाब की पंखुरी' (पंसड़ी ) लगी हुई ( चिपकी हुई ) जानी नहीं जाती (लक्षित नहीं होती )-[ वह ] 'बरन' (वर्ण, रंग ), वास (सुगंधि ) [ तथा ] सुकुमारता ( कोमलता ), [इन सब [ ही ] विधियों” ( व्यवस्थाओं ) से [उसके गोत्र में ] समा रही है ( मिल रही है ) ॥ रंच न लखियति पहिरि यौं कंचन मैं तन, बाल । कुँभिलानै जानी परै उर चंपैक की माल ॥ ६९५ ॥ ( अवतरण )-सखी नायिका से उसके सुनहरे रंग की प्रशंसा करती है-- | ( अर्थ )हे वाल, [ तेरे ] कंचन से शरीर में चपे की माला पहनने पर [ शरीर के रंग में ऐसी मिल जाती है कि ] ‘यौं' ( इसी दशा में, जैसी है वैसी ही, अर्थात् विना कुंभलाए ) 'रंच' ( तनिक भी ) लक्षित नहीं होती, [ पर ] कुंभलाने पर हृदय पर जान पड़ती है ( दिखाई देती है ) ॥ गोधन, तँ हरड्यौ हियँ घरियक लेहि पुजाइ । समुझि परैगी सीस पर परत पसुनु के पाइ ।। ६९६ ॥ गोधन= गोवर्द्धन । कार्तिक-शुक्ल प्रतिपदा के दिन किसान लोग, अपने अपने द्वारों पर, गोबर से गोवर्द्धन की प्रतिमा बना कर, बड़े समारोह से उसकी पूजा करते और उत्सव मनाते हैं। पूजा कर चुकने के पश्चात् वे अपने गाय-बैलों को उसी प्रतिमा पर खड़ा कर के पूजते हैं, जिससे वह प्रतिमा रोदें उठती है ॥ ( अवतरण )—किसी व्यक्ति के सन्मान पा कर अभिमान करने पर कोई यह दोहा, गोवर्द्धन पर अन्योक़ि कर के, उसको सुनाता है ( अर्थ )-[ 8 ] गोवर्द्धन, तु हृदय में हर्षित हुआ ( गर्व से आनंद मनाता हुआ ) [ अपने को ] एक घड़ी भर ( थोड़ी देर )[ भले ही ] पुजवा ले ( सन्मानित करा ले )। [ पर इस पुजवाने की व्यवस्था तुझे थोड़ी ही देर में अपने ] सिर पर पशुओं ( गाय १. लखियत ( ३, ५) । २. यं ( ३, ५ ), यो ( ४ ) । ३. कुम्हलान ( २ )। ४. पति ( ३ ) । ५. चंप ( २, ४) । ६. हरषे ( २ ) । ७. निधरक ( २, ४ ), घरीक ( ३ : १८. लेहु ( ३, ५ ) ।