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२६६ विहारी-रत्नाकर कुजस्यान्तर्गते चन्द्रे स्वोच्च स्वक्षेत्र केन्द्रगे । भाग्यवाहनकर्मेशलग्नाधिपसमन्विते ॥ ७० ॥ करोति विपुलं राज्यं गन्धमाल्याम्बरादिकम् ॥ तडागं गोपुरादीनां पुण्यधर्मादिसंग्रहम् ॥ ७१ ॥ विवाहोत्सवकमणि दारपुत्रादिसौख्यकृत् ॥ . पितृमातृसुखावाप्तिं गृहे वक्ष्मीकटाक्षकृत् ॥ ७२ ॥ । | ( बृहत्पाराशरहोरा-शा, पूर्व संड, अध्याय ३६ ) सखी मंगल के अंतरगत चंद्रमा की कला का नायिका के भाल पर ना कह कर इस ग्रह-संस्था का केंद्रस्थ होना भी लक्षित करती है, क्योंकि स्त्री का स्थान सातवाँ है, जो कि केंद्र के चार स्थान में से एक है। इसी प्रकार का कथन ७०७ दोहे में भी है ॥ अंग अंग छवि की लपट उपटत जाति अछेह ।। खरी पातरीऊ, तऊ लगै भरी सी देह ॥ ६९१ ॥ ( अवतरण )-सखी नायिका के शरीर की युति का वर्णन नायक से करती है ( अथ )-[ उसके ] अंग अंग में छवि की लपट (चमक, ओप) अछेह (निरंतर) उपटती ( उभरती ) जाती है। [ अतः यद्यपि उसकी ] देह अति दुबली भी है, तथापि भरी सी ( गदकारी सी ) लगती है ( प्रतीत होती है ) ॥ ।
- - दृग धिरकॉहैं, अधखुलें, देह-थक हैंढार । | सुरत सुखित सी देखियति,दुखित गरभ * भार ॥ ६९२।।
थिरका ( स्थिरकोन्मुख ) =स्थिर हुए से । यहाँ थिरकाह' शब्द थिरकने से बना हुआ नहीं है, प्रत्युत स्थिर शब्द में 'क' प्रत्यय हो कर बना है ॥ ( अवतरण )-कोई रसिक किसी गर्भिणी स्त्री की चेष्टा का वर्णन करता है ( अर्थ )-[ यह ] गर्भ के वेझ से दुखित, थिरकै हैं ( स्थिर हुए से ), अधखुले इगों से [ एवं ] वेह के थके हुए से ढंग से सुरत कर के सुखित [ स्त्री ] सी दिखाई देती है ॥
---- बिहँसति, सकुयति सी, दिएँ कुच-आँचर-विच बाँह । ।
भी पट तट कौं चली, न्हाइ सरोवर माँह ॥ ६९३ ॥ ( अवतरण )-स्नान कर के सरोवर में से निकलती हुई नायिका की मनोहारिणी चेष्टा पर लुब्ध हो कर नायक, उसे अपने अंतरंग सखा को दिखाता हुअा, कहता है ।। अर्थ )-[ देखो, वह कैसी शोभा के साथ] सरोवर में स्नान कर के, कुचों [ और] अंचल के बीच में बाँह दिए हुए [ जिसमें उसके कुच भीगे हुए वस्त्र में से दिखाई न दें ] १. उपट जात ( ३ ), उपटी जाति ( ५ ) । २. देखिये ( २ ), देखियत ( ५ ) । ३. हियँ ( २, ४)