पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/३२७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२८४
बिहारी-रत्नाकर

________________

२६४ विहारी-मार संकुचित होती है, [ और ] न [ सुकुमार कटि के पीड़ित होने अथवा झूले से गिर पड़ेन से ] डरता है । [ हितकारिणी सखियों के ] वारण करने पर दूनी ( और भी अधिक) इड पर चढ़ता है ( हठ कर के झूलती और झोंका देती है )[ उसको] कटि तुमची की मचक्र से [ परम क्षीण तथा सुकुमार होने के कारण टूट ही जाती, पर ] टूटते टूटते लचक लचक कर बच जाती है [ जैसे कोई लचकीली छड़ी इत्यादि अत्यंत झुकने, मुड़ने और झकझोरे जाने पर भी टूटने से बच जाती है ] ॥ । कर समेटि कच भुज उलटि, खएँ सीस-पटु टारि । काकी मनु बाँधे न यह जू-बाँधनहारि ॥ ६८७ ॥ ( अवतरण )-नायिका के जूड़ा बाँधते समय की मनोहारिणी चेष्टा देख कर नायक स्वगत कहता है | ( अर्थ )-भुजाओं को [ पीछे की ओर ] उलटे हाथों से बालों को समेट ( और ] खओं ( पग्वुरों, भुजमूलों ) पर सिर का वस्त्र टाल कर ( हटा कर ) यह जूड़ा बाँधने वाली किसका मन नहीं बाँधती ( अपने पर आसक्त नहीं कर लेती ) ॥ पूॐ क्यौं रूखी परति, सगियगि गई सनेह । मनमोहन-छथि पर कटी, कहै कॅव्यांनी देह ॥ ६८८ ॥ कट-कटना बोलचाल में अत्यंत शासक्त होने के अर्थ में प्रयुक्त होता है, जैसे "अमुक व्यक्ति को देख कर हम तो कट गए,' अर्थात् अत्यंत थासक्त हो गए । | ( अवतरण )–उपपति नायक को देख कर नायिका के शरीर में स्वेद तथा रोमचि सारिक हो आए हैं। पर सखियाँ के यह पूछने पर कि “तेरी यह दशा क्य हो गई है", वइ रूखा सा मुंह बना कर कुछ घंटसंट कर देती है, जिस पर के मुंवगी चतुर सखी, उसकी चेष्टा से सी बात लक्षित कर के, कहती है ( अर्थ )-[ नायक को देखते ही तो तु] स्नेह (१. प्रेम । २. तेल ) में सगबग ( लतपत ) हो गई ( अर्थात् उसके स्नेह के कारण पसीने से भीग गई ) है, [ फिर तु] पूछने पर रुखी क्यों पड़ती है। [१] मनमोहन (मन के मोहने वाले श्रीकृष्णचंद्र ) की छवि पर कट गई है ( आसक्त हो गई है), [ यह बात तेर] 'कॅव्यानी' (कंटकित, रोमांवित ) देह कहती ( प्रकट करती ) है॥ सोहत ओ पीतु पटु स्याम, सलौनें गात ।। मनौ नीलमनि सैल पर आतपु पखौ प्रभात ॥ ६८९ ॥ ३. कुच ( २, ३, ५ ) । २. जूरी ( ) । ३. परगटी ( ३, ५ ) । ४. कहानी ( ३, ५ ) ! ५. ओढपी ( ३, ५) ।