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बिहारी-रत्नाकर

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२७२ विहारी-रत्नाकर प्राकृत रूप 'पउति' होता है, जिसके अपभ्रंश 'पोत' शब्द का प्रयोग बिहारी ने ४६१-संख्यक दोहे में किया है । उसी 'पउति' का 'पूत' भी अपभ्रंश माना जा सकता है । ( अवतरण )-ईश्वर को अपने ऊपर करुणा न करने का उलाहना देते हुए कवि की प्रास्ताविक क़ि है कि समय के फेर से सबके स्वभाव बदल जाते हैं ( अर्थ )-समय की पलट ( फेर ) से [ सवकी ] प्रकृति ( स्वभाव) पलट ( बदल ) जाती है, [ और ऐसा ] कौन [ है, जो ] अपनी चाल नहीं तज देता है ! देखो, ] इस दुष्प्रकृति कलिकाल में करुणाकर (करुणा का आकर अर्थात् परम दयालु इश्वर ) भी अकण ( दयाहन ) हो गया है [ अतः हम लोगों की पुकार नहीं सुनता, जैसा कि और युग में सुना करता था ] ॥ पाखौ सोरु सुहाग को इनु विनु हाँ पिय-नेह । उनंदहीं अँखियाँ ककै, कै अलसहीं देह ॥ ६६२ ॥ ( अवतरण )-नायिका, अपनी किसी सपत्नी की आँख को उनींदी सी एवं वेह को अलसाई हुई सी देख अथवा सुन कर, इस अनुमान से दुखित हुई है कि नायक उसको अधिक प्यार करता है, और रात को उसी के यहाँ रहा है। उसे दुखित देख कर उसकी हितकारिणी सखी समझाती है कि तेरी सपत्नियाँ बड़ी धूर्त हैं, इन सबने अपनी खाँ को उनींदी सी एवं देह को ग्रालस्य-भरी सी बना बना कर अपने प्रियतम की प्यारी होने की मिथ्या धूम मचा रखी है, जिसमें तु यह सुन सुन कर कुछे, और नित्य मान-कलह करे, तो फिर प्रियतम का चित्त शनैः शनैः तुझसे फिर जाय, और उनकी बन पड़े, इत्यादि । सो त इन धूर्ताओं के धोखे में आ कर वृथा दुखित मत हो । इस दुःख मैं तेरा अनहित है। सच्ची बात और उनका गुप्त अभिप्राय भली भाँति समझ कर तू इस दुःस्व का परित्याग कर । भला तु यह तो समझ कि यदि तेरी किसी एक सौत की ऐसी चेष्टा होती, तो किसी प्रकार से अनुमान ठीक भी हो सकता था, पर जब सभी को अाँखें उन सी तथा देह अलसाई हुई सी हो रही है, तो यह कैसे संभव हो सकता है कि प्रियतम सभी के साथ रात भर रहा हो । अतः ये सबकी सब धूर्त तथा मिथ्या चेष्टा बनाए हुए प्रमाणित होती हैं ( अर्थ )-इन्होंने ( तेरी धूर्त सौतों ने ), विना प्रियतम के स्नेह ही के [ अपनी ] आँखों को उनींदी सी कर कर के ( यरवस बना बना कर ) [ एवं ] देह को आलस्य-भरी सी कर के ( बना कर ), [ अपने ] सुहाग ( सौभाग्य, अपने ऊपर प्रियतम के स्नेह होने के सौभाग्य ) का ‘सोरु' ( शोर, विख्याति, धूम ) [ गॉव भर में ] डाल रक्खा है ( मचा रक्खा है ) [ अतः तु इनकी धूर्तता से सचेत रहे, और वृथा दुखित हो कर इनको अपनी कुटिल नीति से कृतकार्य न होने दे ] ॥ इन दुखिया अँखियानु क सुख सिरज्यौई नाँहि । देखें बनै न देखतै, अनदेखें अकुलाँहि ॥ ६६३ ॥ १. सोहाग ( ३ ) । २. इनदोही (३, ५) । ३. अंखिया (२) । ४. दुखियाँनि ( २ ) । ५. देखत (२ )। ६. देखतें ( २, ३ )।