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बिहारी-रत्नाकर


बिहँसीँ = विशेष रूप से हँसीँ, अर्थात् इस रीति से हँसीँ कि जैसे कोई कुछ छिपी हुई बात को समझ कर हँसता है॥ हँसीँ = प्रसन्नता-पूर्वक हँसीँ॥

(अवतरण)—दो परकीया नायिकाएँ एक ही नायक से अनुरक्त हैँ, और दोनोँ मेँ मैत्री भी है। पर दोनोँ को एक दूसरे के अनुराग का वृत्तांत निश्चित रूप से ज्ञात नहीँ है। नायक विदेश गया हुआ था, जिससे दोनोँ दुःखी रहती थीं, अतः दोनोँ को एक दूसरे पर उसी के बिरह मेँ दुःखित होने का संदेह था। एक दिन दोनोँ साथ ही बैठी हुई थीँ कि इतने मेँ किसी ने उनके मित्र का नाम के कर किसी से पुकार कर कहा कि अमुक व्यक्ति आ गए। यह सुन कर दोनों हुलस उठीँ, जिससे वे, एक दूसरे का प्रेम लक्षित कर के, अपना लक्षित कर लेना व्यंजित करती हुई, मुसकिराईँ, और फिर आपस मेँ समझ बूझ कर प्रसन्नता से हँसीँ। यही वृत्तांत कोई सखी किसी अन्य सखी से कहती है—

(अर्थ)—किसी ने [किसी अन्य से] पुकार कर [इनके] मित्र को विदेश से आया हुआ कहा (इनके मित्र का नाम ले कर कहा कि अमुक व्यक्ति विदेश से आ गया)। [यह] सुन कर [दोनोँ] हुलसीँ (उल्लासित हुईँ), [जिससे दोनोँ ने एक दूसरे का अनुराग लक्षित कर लिया,] और विहँसीं (अपना लक्षित कर लेना व्यंजित करती हुई हँसीँ), [और फिर] दोनोँ दोनोँ को देख कर (दोनोँ दोनोँ की चेष्टा से आपस में समझ बूझ कर) [प्रसन्नता-पूर्वक] हँस दीँ॥

जद्यपि सुंदर, सुघर, पुनि सगुनौ दीपक-देह।
तऊ प्रकासु करै तितौ, भरियै जितैँ सनेह॥६५८॥

(अवतरण)—मानिनी नायिका को सखी समझाती है कि नायक से स्नेह करने ही मेँ तेरी शोभा है—

(अर्थ)—दीपक-रूपी देह यद्यपि सुंदर, सुघड़ (अच्छी गढ़न वाली) [और] फिर 'सगुन' (१. बत्ती-सहित। २. शुभगुण संपन्न) भी हो, तथापि [उसमेँ इन सब बातोँ से प्रकाश नहीँ हो सकता, वह] प्रकाश उतना ही करती है (१. उतना ही उजाला उसमेँ होता है। २. उतनी ही शोभा उसमें होती है), जितने स्नेह (१. तेल। २. प्रेम) से [उसको] भरा जाता है॥

पलनु प्रगटि, बरुनीनु बढ़ि, नहिँ कपोल ठहरात।
अँसुबा परि छतिया, छिनकु छनछनाइ, छिपि जात॥३५९॥

(अवतरण)—सखी अथवा दूती नायक से नायिका का विरह निवेदन करती है—

(अर्थ)—[उस नायिका के हृदय में विरह-ताप ऐसा बढ़ा हुआ है कि उसके] आँसू [उबल कर] पलकों में प्रकट हो, बरुनियों से बढ़ कर [अधिकता के कारण] कपोल पर नहीँ ठहरते, [और] छाती पर पड़ कर, क्षख मात्र छनछना कर (छन छन शब्द, अर्थात् ऐसा शब्द जैसा तप्त तबे पर पानी की बूँदोँ के पड़ने से होता है, कर के) छिप जाते हैँ (अलक्ष हो जाते हैँ)॥