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बिहारी-रत्नाकर

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२६८ विसरी-रत्नाकर के हृदय में उत्साह बढ़ाती है, और "करु धरि देख इत्यादि वाक्य से उसको फिर नायिका के पास चलने पर उद्यत किया चाहती है | ( अर्थ )-हे निर्दयी, [ तुमसे ] दैव [ववावे ], [ भला कहीं ] कुसुम सा [ कोमल ] गात इस प्रकार ( इस निर्दयता से ) दला मजा जाता है [ कि जैसे तुमने उसके सुकुमार शरीर को दलमल डाला है ]। [नेक उसकी छाती पर ] हाथ रख कर देखो [ तो सही कि उसके] उर का धरधर अभी तक नहीं जाता ( मिटता ) है ॥ को माया र ३ मा किती न गोकुल कुलवधू, किहिँ न कोहि सिख दीन । कौनँ तजी न कुल-गली है मुरली-सुर-लीन ॥६५२॥ | ( अवतरण )-सखी नायिका को शिक्षा देती है कि तू उत्तम कुल की वधू है, तुझे वंशीध्वनि सन कर इस प्रकार विकल हो दौड़ पड़ना उचित नहीं है। नायिका उसको उत्तर देती है कि गोकुल मैं कुछ एक में ही कुलवधू नह” हूँ, प्रत्युत अनेकानेक कुलवधुएँ हैं, और तेरी भाँति सबने सबको शिक्षा भी दी है । परे तु यह तो बतजा कि उन शिक्षा देने वालियें तथा पाने वाजियों में से कौन ऐसी है, जिसने मुरली के स्वर में लीन हो कर कुल की मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया है। इस वाक्य से नायिका सखी पर कटाक्ष भी करती हैं कि तू भी तो अन्य शिक्षा देने वालियं की भंति कुन-मर्यादा का उल्लंघन कर चुकी है । अतः तुझ पर यह कहाव । -‘पर उपदेस- हुसन बहुतेरे । जे अचर, ति नर न घनेरे'- चरितार्थ होती है ( अर्थ )–गोकुल में कितनी कुलवधुएँ नहीं हैं ( अर्थात् सव कुलवधू ही तो हैं, और तू भी उन्हीं में है ), [ और ] किसने किसक शिक्षा नही दी ( अर्थात् सवने तेरे सभेत सवको अपने अपने अवसर पर शिक्षा भी दी ). [ पर तू य३ ते बत ना कि ] मुरली के स्वर में लीन ( असक्न ) हो कर किसने ( तेरे सहित किस शिक्षा देने अथवा पाने वाली ने ) कुन-गली (कुल की रीति ) नहीं छोड़ी ॥ खलित वचन, अधखुलित दृग, ललित स्वेद-कन-जोति । अरुन बदन छबि मर्दैन की खरी छबीली होति ।।६५३।। खलित ( स्खलित ) =रते, अर्थशून्य ।। ललित= काँपती हुई अथवा सुंदर ॥ ( अवतरण )-अन्य संभोग-दुःखिता नायिका की क़ि दूती से ( अर्थ )-अर्थशून्य वचन, अधखुले (रतिश्रम से अलसाए हुए ) दृग, पसीने के कण ( बँद ) को ललित ( काँपती हुई अश्या सुंदर ) चमक [ एवं ] अरुण वन से [ तुझ पर ] मदन की छवि ( काम-क्रीड़ा से उपजी हुई शोभा ) बड़ी छबीली (सुंदर ) हो रही है। यह दोहा खंडिता नायिका का वचन नायक-प्रति अपवा सखी-वचन लक्षित-प्रति भी हो सकता है ॥ १. काहि ( २,४ ) । २. को ( २ ), कि (४) । ३. मद-अकी (५) ।