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बिहारी-रत्नाकर

से] देखी नहीँ जाती। [जिस प्रकार बुद्धि के द्वारा यह तर्क करने पर कि यदि ब्रह्म है नहीँ, तो यह संसार कैसे ठहरा हुआ है, और श्रुति मेँ जो ब्रह्म का अस्तित्व बतलाया गया है, उसको प्रमाण मानने से ब्रह्म की सत्ता स्थापित होती है, उसी प्रकार] बुद्धि के द्वारा [यह] अनुमान [करने से कि यदि कटि है नहीँ, तो ऊपर तथा नीचे के धड़ के भाग जुड़े कैसे हैँ, तथा] कान का [अर्थात् जो लोगोँ को कहते सुना है कि तेरे भी कटि है, उसका] प्रमाण करने से (मानने से) किसी प्रकार [तेरी कटि] ठहरती है (तेरी कटि की सत्ता सिद्ध होती है)॥

खिचैँ मान अपराध हूँ चलि गै बढ़ैँ अचैन।
जुरत[] डीठि, तजि रिस खिसी, हँसे दुहुनु के नैन॥६४९॥

(अवतरण)—सखी सखी से नायक नायिका के प्रेमाधिक्य का वर्णन करती है—

(अर्थ)—[नायिका के नेत्र] मान से [तथा नायक के नेत्र] अपराध से खिँचे (परस्पर देखने से रोके जाते) हुए होने पर भी, [परस्पर न देखने के] अचैन (बेचैनी) के बढ़ने से, [एक के नयन दूसरे की ओर] चले गए, [और] दृष्टि के मिलते [ही] दोनों के नयन, 'रिस' (रोष) [तथा] 'खिसी' (लज्जा) [अर्थात् नायिका के नेत्र रोष एवं नायक के नेत्र लज्जा] छोड़ कर, हँस पड़े॥

रूप-सुधा-आसव छक्यौ, आसव[] पियत बनै न।
प्यालेँ[] ओठ, प्रिया-बदन रह्यौ लगाऐँ नैन॥६५०॥

आसव=टपकाई हुई मदिरा॥

(अवतरण)—नायिका का रूप देख कर नायक ऐसा मोहित हो गया है कि उससे मद्य-पान करते नहीँ बनता। सखी वचन सखी से—

(अर्थ)—[नायक] सौंदर्य-रूपी सुधा के आसव से [ऐसा] छक गया (आतृप्त पी कर मस्त हो गया) है [कि उससे] आसव (सामान्य मद्य) पीते नहीँ बनता। [वह] प्याले पर ओंठ [एवं] प्रिया के बदन पर नयन लगाए हुए रह गया है (स्थगित हो गया है)॥

यौँ दलमलियतु, निरदई[], दई, कुसुम सौ गातु।
करु घरि देखौ, घरधरा उरें[] कौ अजौँ न जातु॥६५१॥

धरधरा = धड़कन॥

(अवतरण)—सखी नायिका की सुकुमारता तथा नायक की प्रबलता का वर्णन कर के नायक


  1. जुरति (२, ५)।
  2. सब कैँ (२), सबु जगु (४)।
  3. प्याली (२, ३, ५)।
  4. निर्दई (४)।
  5. अजौँ न उर कौ (२)।