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बिहारी-रत्नाकर २६५ तनक झूठ ने सवादिली कौने बात परि जाइ । तिय-मुख रति-आरंभ की नहिँ झुठियै मिठाइ ॥ ३४४ ॥ सवादिली= स्वादुता, मिठास ॥ ( अवतरण )–नायक अपने अंतरंग सखा अथवा मन से कहता है कि संसार मैं झूठ से बात का स्वाद जाता रहता है, पर रत्यारंभ में स्त्री के मुख की झूठा ही नहीं नह' मीठी लगती है ( अर्थ )-कौन बात (किस बात ) में किंचिन्मत्र [ भी ] झूठ पड़ जाने से ( मिल जाने से ) [ उसकी ] 'सवादिल' नहीं जाती रहती ( नष्ट हो जाती ), [ अर्थात् सभी बातें किंचिन्मात्र भी झूठ के मेल से फीकी पड़ जाती हैं, पर ] स्त्री के मुख से रत्यारंभ की झूठी ही नहीं नहीं मिठाती है ( स्वादु लगती है ) ॥ । नहिं अन्हाइ नहिं जाइ घर, चितु चिढुव्यौ तकि तीर । परसि, फुरहरी लै फिरति बिहँसति, पॅसति न नीर ॥६४५॥ कुरहरी=शीत, भय, आनंद इत्यादि के कारण जो कुछ कंप तथा पुलक सा शरीर में हो जाता है । ( अवतरण )-नायिका जहाँ स्नान कर रही है, वहाँ नायक भी आ गया है। अतः नायिका, उसे देखने के लालच से शीत का साज कर के, नहाने मैं विलंब करती है, और फुरहरी ले ले कर ट पड़ती है, जिसमें उसका मुँह तीर की अोर है, और वह नायक को देख सके । सखी-वचन सखी से ( अर्थ )-न [ ते यह ] नहाती है, [ और ] न घर की जाती है। [ इसका ] चित्त [ नायक से विभूषित ] तीर में [ उसको ] ताक कर 'विहुँयौ' (चिपका, लगा ) है।[ देख, यह शीत के व्याज से जल को ] स्पर्श कर, फुरहरी (कंप तथा पुलक) ले कर ( जान बुझ कर अपने शरीर में उत्पन्न कर के ) हँसती हुई लौट आती है, और ] जल में नहीं धंसता (पैठती ) ॥ सटपटाति मैं ससम्मुखी मुख धूघट-पटु ढाँकि। पावक-झर सी झमकि कै गई झरोख झाँकि ।। ६४६ ॥ मैं—यह शब्द 'सी ही' अथवा 'से ही' का लघु रूप बन गया है । ‘सी ही' अथवा 'से ही' से 'सीयै' अथवा 'सेयै', और 'सीये' अथवा 'सेचै' से 'स्ये' बना है । स्थै' के यकार के लोप तथा अर्द्धचंद्र के आगम से उसी का मैं ' रूप हो गया है। काव्य-भाषा में वठुधा निरनुनासिक शब्द का उच्चारण सानुनासिक किया जाता है । ( अवतरण )-नायक को खिड़की में से देख कर जिउ मनोनहिनी चेष्टा से नायिका हट गई है, उसका वर्णन नायक उस की सनी से अथा स्वगत करता है १. निसवादिली ( २, ४ ), न सवादली ( ३ ), निसवादली ( ५ ) । २. क्यों न ( ३, ५ )। ३. लौं ( ३, ५ )। ४. सी ( ४ ) । ५. कईं ( ३ ) । ६. श्रीझाँ ( ३ ), ओझा ( ५ ) ।