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बिहारी-रत्नाकर

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विहारी-रत्नाकर २६१ ( अवतरण )–नायक नायिका होली के खेल में परस्पर गुबान की मू भर भर कर चलाते हैं। पर कुछ गुलाब तो कंप सात्विक से गिर जाता है, और कुछ स्वेद से हाथ में लिपट रहता है। अतः दोन की मूठें छूटने पर रीती सी प्रतीत होती हैं। यह वृत्तांत देख कर दोनों के प्रेम की प्रशंसा करती हुई सखियाँ अापस मैं कहती हैं (अर्थ)-[ फाग के खेल में ] गुलाल से भर कर (भली भाँति पूर्ण कर के) ली हुई मूठ भी छूटने पर झूठी हो जाती है ( ऐसा प्रतीत होता है मानो उसमें गुलाल लिया ही नहीं गया था ) । [क्योंकि पारस्परिकदर्शन-जनित सात्विक से ] कुछ [ गुलाल ते] कंप के कारण गिर जाता है, [ और] कुछ [स्वेदः से ] पसीज कर हाथ में लिपट कर रह जाता है [ अतः सूठ खुलने पर एक का गुलाल दूसरे पर नहीं पड़ता ] ॥ देवत कछु कतिगु इतै देखी नैंकं निहारि । कब की इकटके डटि रही टटिया अँगुरिनु फारि ॥ ३३४ ॥ ( अबतरण )--परकीया नायिका अपने द्वार अथवा खिड़की की टट्टी की स्थौरन को अँगुलियाँ से सरका कर बाहर खड़े हुए नायक को देख रही है । पर नायक का ध्यान किसी अन्य कौतुक में लगा हुआ है । नायिका की कोई अंतरंगिनी सखो उसका ध्यान उस ओर आकर्षित करती हुई कहती है| ( अर्थ )-[ तुम ] कुछ कौतुक इस ओर [ भी ] देखते ही [अथवा उसी ओर ध्यान दिए हुए हो ], किंचित् निहार कर ( दृष्टि दे कर ) [ इधर तो ] देखो। [ वह बेचारी तुम्हें देखने के लिए ] कब की ( कब से ) टट्टी को अंगुलियों से फाड़ कर एकटक (निरंतर, विना पलक गिराए देखती हुई ) डटी हुई है ( एक ही स्थान पर स्थित हैं ) ॥ कर लै, चूमि, चढ़ाई सिर, उर लगाइ भुज भेटि । लहि पाती पिय की लखति, बाँचति, धरति समेटि ।। ३३५ ॥ ( अवतरण )-प्रोषितपतिका नायिका को नायक की पत्रिका मिलने से जो अकथनीय हर्ष हुआ है, उसका वर्णन कोई सखी किसी अन्य सखी से, नायिका की चेष्टा का कथन करती हुई, करती है । | ( अर्थ )-[ देख, इस नायिका का कैसा विलक्षण प्रेम है कि वह ] प्रियतम की पत्रिका पा कर [ मारे प्रेम के विह्वल हो उसको ] हाथ में ले कर, चुम, [ आदर से ] सिर पर चढ़ा, छाती से लगा [ और ] भुजाओं से भेट कर [ बड़े चाव से ] देखती, [ बड़े उत्साह से ] बाँचती [एवं फिर बहुत सँभाल कर ] समेट कर ( तहिया कर, मोड़ कर) रख लेती है । २) । २. टग ( ३, ५ ) । ३. खिसी (५)।