पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/३०३

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२६०
बिहारी-रत्नाकर


२६० विहारी-राकर लखि लखि आँखियेनुअधखुलिनु, आँगुमोरि, अँगिरौद । आधिकै उठि, लेटति लदकि, आलस-भरी जम्हाई ॥ ६३०॥ ( अवतरण )-रसि-श्रमित नायिका के प्रातःकाल जागने के समय की शोभा का वर्णन सखी सखी मे करती है ( अर्थ )-[ हे सखी ! देख, यह हमारी प्यारी सखी रात के रति-श्रम से ] आलस्यभरी हुई जंभा कर [ कैसी शोभा से ] अधखुली आँखों से [ इधर उधर ] देख देख कर [ कि कहीं नायक तो यहाँ उपस्थित नहीं हैं ], शरीर को मोड़ ( उमेठ) कर [ और ] अँगड़ा कर, [शय्या पर ] 'अधिक' ( कुछ ) उठ कर [ और फिर ] लटक ( भुक) कर लेट जाती है ॥ प्रेमु अडोलु डुले नहीं मुँह बोले अनखाइ । चित उनकी मूरति बसी, चितवन माँहि लम्वाइ ।। ६३१ ।। ( अवतरण –अक्षिता नायिका का अनुराग बक्षित कर के सखी ने कुछ छेड़ छाड़ की, जिस पर अनुराग छिपाने के निमित्त नायिका कुछ खिझला उठी । सब सखी कहती है | ( अर्थ )-[ नेरा] अडोल ( अटल, दृढ़ ) प्रेम [ तेरे ] मुख से अनखा कर बोलने [ मात्र] से इस ( टल ) नहीं सकता। [ तेरे ]चित्त में उनकी मूर्ति बस गई है, [ यह बात नेरी ] चितवन में ( से ) लक्षित होती है क्योंकि तेरी दृष्टि उस ओर जाते ही कुछ और ही सी हो जाती है ] ॥ नाक मोरि, नाहीं के नारि निहोरें लेइ ।। कुवत ओठ बिय अगुरिनु बिरी बदन प्यौ देइ ॥ ६३२ ॥ ( अवतरण )-नायक नायिका को अपने हाथ से पान खिलाता है । उस समय के नायिका के कुटुमित राव नथा नाय की छेड़ छाड़ का वर्णन सखी सखी से करती है ( अर्थ )-नाक मोड़ कर ( मड़ोर कर ) [ तथा ] नहीं नहीं कर के नारी (नायिका) ‘निहो' ( उपकार करने की प्रार्थना से )[ प्रियतम के द्वारा दी जाती हुई बीड़ी अपने मुख में ] लेती हैं, [ और ] प्रियतम [ उसके ] दोनों ओठों को उँगलियों से छूता हुआ [उसके मुंह में [ पान की ] बीड़ी देता है ।


-- गिरै' कंपि कछु, कछ रहै कर पसीज लपटाइ ।

लेय मुंठी गुलाल भरि छुटत झूठी है जाइ ।। ६३३ ॥ १. अंखिया ( ३, ४, ५ ) । २. अधखुली ( २ ) । ३. ऍड्राइ ( २ ), अँगुराइ ( ३, ५ ) । ४. श्राधिक सी उठ उठ लटति ( ३, ५ ) । ५• ग्रारस ( ३ ) । ६. करै ( २ ) । ७. गयो कंप ( ४ ) । ८. लॅया ( ३ ), लीने ( ४ ) । ६. भूठि ( ३, ५) । १०. की ( २ )।