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विहारी-रत्नाकर [ उसकी शोभा की झलक पड़ने के कारण ] चौगुनी चटक हो जाती है ( आ जाता है ), [ क्योंकि उस चुनरी की ] पंचरंगे रंग की बेंदी ( पाँचो रंग में से प्रत्येक रंग की वैवकी) [ उसके ] मुख की ज्योति से अत्यंत ‘ऊगि उठती है ( पूर्ण रूप से प्रकाशित हो जाती है, अधिक चटकीली हो जाती है ) ॥ हँसि ओठनु-बच, करु उचै, किर्यै निचॉहैं नैन । खरै अर्दै प्रिय हैं प्रिया लँगी थिरी मुख दैन ।। ६२७ ।। ( अवतरण )-विश्रब्धनवोढ़ा नायिका को नायक का अब इतना विश्वास हो गया है कि वह उसके विशेष हठ करने पर अपने हाथ से उसे पान खिलाने लगी है। इसी विश्वास तथा पान खिलाते समय की चेष्टा का वर्णन सखी सखी से करती है | ( अर्थ )-[ अब वह नवोढ़ा इतना विश्वास करने लगी है कि ] प्रियतम के बहुत अड़ने ( हठ करने ) पर, [ अपने ] अठों [ ही ] में हँस कर ( मुसकिरा कर ), कर ( हाथ ) ऊँचा कर के [और ] नेत्र निचाहें ( नीचे की ओर ) किए हुए, [ उसके ] मुख में [ पान की ! वीड़ी देने लगी है ॥ वा, बलि, तो दृगनु पर अलि, खंजन, मृग, मीन । धडीठि-चितौनि जिहिँ किए लाल अधीन ॥ ६२८॥ ( "प्रबलर ए )--दूती नायिका के नेत्र की प्रशंसा करती हुई नायक के उस पर अनुरक्त होने का वृत्तांत उसको मुनाती है | ( अर्थ )-[ हे लाड़ली, म तुझ पर ] बलि [ जाऊँ ], [ मैं ] तेरे इगों पर अलि, खंजन, मृग [ तथा ] मीन चार हूँ, जिन[ नेत्र ]से अधिी दृष्टि की चितवन के द्वारा { तूने ] लाल [ अपने ] अधीन कर लिए ॥ जात सयान अयान है, वे ठग काहि ठगै न । को ललचाइ न लाल के लखि ललचाँहैं नैन ॥ ६२९ ॥ ( अवतरण )-शिक्षा देती हुई सखी से नायिका कहती है कि कुछ मैं ही नायक के नेत्रों पर खजचा कर मुग्ध नहीं हो गई हैं, बड़ी बड़ी सयानियाँ भी उनके ललचा कर देखने पर उग जाती हैं, और सन पर मोहित हो जाती हैं ( अर्थ )-लाल के ललचाँहैं ( अपनी ओर लालच से देखते हुए ) नयन देख कर कौन ललचाता नहीं ( मोदित न होता ) । वे ठग किसको नहीं ठग लेते, [ इनके आगे बड़े बड़े ] सयाने ( सशान ) अयने (अशान ) हो जाते हैं । ५. बिरी ( २ ) । २. लगे ( २ ) । ३. दीठि ( ५ ) । ४. त्या ( २ )