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विरारी-राकर | ( अबतरण )-नायक ने नायिका को कोई सुगंधित माता दी है। वह माला, नायक की दी हुई होने के कारण, नायिका को ऐसी प्रिय है कि उसकी सुगंधि के जाते रहने पर भी यह उसको अपनी छाती से अलग नहीं करती। यह वृत्तांत कोई सखो, उसका प्रेमाधिक्य व्यंजन करती हु, नायक से कहती है | ( अर्थ ) हे लाल ! जो माला तुमने [ उसको ] हर्ष-पूर्वक दी है, वह [ उसने अभी तक ] नैक भी (क्षण मात्र के लिए भी ) जुदी (अपने तन से अलग ) नहीं की। [उसकी] बास (सुगंधि ) के छूटने पर भी ( जाते रहने पर भी ) [ उसका ] ‘बास' ( निवास ) [ उसके] उर से नहीं छूटा ॥ बिहँसि बुलाइ, बिलोकि उत प्रौढ़ तिया रस घूमि ।। पुलकि पसीजति, पूत कौ पिय-चुम्यौ मैं चूमि ।। ६१७॥ ( अवतरण )-नायक नायिका, दोन गुरुजन में हैं। नायक ने स्नेह से अपने पुत्र का मुख चूमा । यह देख कर नायिका ने उस पुत्र को अपने पास बुला कर और यह समझ कर कि इसके मुख मैं प्रियतम का अधरामृत लगा है उसका मुख चमा, और उस अधरामृत का सुख अनुभव कर के हर्षित हुई । गुरुजन मैं होने के कारण उस समय न तो नायक ही उसका मुख चूम सका और न वही नायक का, अतः नायके के मुख चूमने के अभाव में उसने नायक का जुठारा हुआ पुत्र ही का मुख चूम कर अनंद पाया, जैसे कि कोई गुरुभक्त गुरु के जूठन को खा कर आनंदित होता है। यह वृत्तांत कोई सखी देख कर और नायिका का भाव बक्षित कर के किसी अन्य सखी से कहती है ( अर्थ )-"बिहँसि' ( मुसकिरा कर ) [ अपने पुत्र के पास ] बुला [ और ] ‘उत' ( नायक की ओर ) देख [ वह ] प्रौढ़। स्त्री रस ( आनंद ) से घूम कर ( मतवाली हो कर ) [ उस ] पुत्र को 'पिय-चुम्यौ' ( प्रियतम से चूमा गया हुआ) मुह चूम [ सात्विक से ] पुलक कर ( रोमांचित हो कर ) पसीजती ( पसीने से तर होती ) है ॥ देख्यौ अनदेख्यौ कियँ, अँगु अँगु सबै दिखाई। पैठति सी तन मैं संकुचि बैठी चितै लजाइ ॥ ६१८॥ ( अवतरण )-नायक ने नायिका के जो हाव भाव देख हैं, उनका वर्णन नायिका की किसी अंतरंगिनी सखी अथवा अपने किसी अंतरंग मित्र से करता है | ( अर्थ )-[ वह ] 'देख्यौ अनदेख्यौ कियें' ( अपने द्वारा मेरे देखे जाने को अनदेखा किए हुए, अर्थात् मुझे देख कर भी ऐसी चेष्टा बनाए हुए कि मानो उसने मुझे देखा ही नहीं है), [ अपने ] सब अंग अंग [ पट का इधर उधर बिचला कर एवं अँगड़ाई इत्यादि ले कर मुझे ] दिखला कर, [ और फिर मेरी ओर ] 'चितै' ( देख कर )[ मानो उसने अभी १. कियौ ( २ )।