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२५२ विहारी-रत्नाकर विशेष चमत्कारजनक नहीं है। इसलिए इस दोहे का अर्थ नीचे लिखे हुए प्रकार से यदि किया जा तो अच्छा है ॥ ( अवतरण २ )-नायक प्रातःकाल नायिका के यहाँ अाया है। उसके भाल पर महावर ल. हुआ है, जिससे प्रतीत होता है कि उसने नायिका की सोत को, अथवा अन्य किसी स्त्री को पत्र पड़ कर मनाया था। उसकी अखाँ मैं भी पाक की लाली लगी है। अतः नायिका कहती है कि जिस भामिनी के चरण मैं तुमने अपने भात्न से महावर लगाया, अर्थात् भाज से महावर नहीं लगाया जाता पर तुमने उस का इतना सन्मान किया कि हाथ के बदले उसके पाँव मैं सिर से महावर लगाया, उसी भामिनी ने उस सन्मान के बदले में तुम्हारी आँखों को हाथ से अंजित न कर के ओडौँ से लाल रंग दिया। भात मैं पाँव पड़ने से लगे हुए महावर को नायिका व्यंग्य से पाँव में महावर जगाने के कारण लगा हुआ कहती है, और सिर के द्वारा महावर लगाया जाना कह कर व्यंग्य से महावर का सिर के द्वारा फैलाया जाना विदित करती है। ‘भामिनि' शब्द से वह व्यंजित करती है कि वह सहन करने वाली नहीं है । अतः उसने अपने पाँव के महावर के फैजा देने का यथोचित बदला तुम्हारी शाँख मैं भद्दी पीक-बीक जगा कर तुमको दे दिया ( अर्थ २ ) हे लाल, [ तुम्हारे नेत्रों में पान की पीक बड़े भई रूप से लगी है ] माने जिस भामिनी ( १. सुंदर स्त्री । २. लड़ाका स्त्री ) के निमित्त [ अपने अपने ] भाल से पैर को महावर भूपण रचा ( १. भूपित किया । २. भद्दा कर दिया, फैला दिया), उसी ने [ उसके बदले में तुम्हारी ] आँखें [ अपने ] श्रेठों के रंग से रंग दी ( १. रँग कर सुंदर कर दीं। २. रंग से लीप पोत दी ) ॥ तू मोहन-मन गड़ि रही गाढ़ी गड़नि, गुवालि । | उठे सदा नटसाल ज्यौं सौतिनु वें उर सालि ॥ ६०६ ।। ( अवतरण )--दूती नायिका से नायक के प्रेम की प्रशंसा कर के उसके हृदय में प्रति बढ़ाया चाहती है ( अर्थ )-हे ग्वालिनी, तु गड़ [ तो ] गाढ़ी गड़न से ( गहरे धसाव से ) मोहन के मन में रही है, [ पर ] सदा नटसाल ( नष्ट शल्य ) सी साल ( पीड़ा दे ) उठती है [ अपनी ] सौतों के हृदय में । इस दोहे मैं विलक्षणता यह है कि गाने की क्रिया तो नायक के मन में होती है, और खटकने की सौत के उर मैं ॥ लाज-लगाम न मानहाँ, नैना मो बस नाहिँ । ए मुंहजोर तुरंग ज्य, ऍचत हैं चलि जाहिँ । ६१० ॥ ( अवतरख)–सली नायिका को समझाती है कि नायक की ओर ऐसी विवशता से देखने १. मैं ( ५ ) । २. ल. ( २ ), सी ( ४ ) । ३. सौतिनि ( २ ), सौतिन ( ३, ५)। ४. ( २, ४ ) । ५. ही ( ३, ५)।