पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२९१

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२४८
बिहारी-रत्नाकर


विहारी-रत्नाकर अपने वश से बाहर )। [ तो फिर ] अव [ तेरे इस ] तेवर चढ़ाने से [तेरे ] चित्त पर चढ़ा हुआ [ नायक] दर ( छिप ) नहीं सकता ॥ दुसह सौति-सालें, सु हिय गनतिन नाह-बियाह ।। धरे रूप गुन की गरवु फिरै अछेह उछाह ।। ६०० ।। ( अवतरण )-नायिका के पति के एक और विवाह की तैयारियाँ हो रही हैं। पर इस घटना से उसको किंचिन्मात्र भी दुःख नहीं होता, प्रत्युत इस गर्व से कि मेरे रूप तथा गुण ऐसे हैं कि नायक मेरे वश से अन्य के वश में नहीं जा सकता वह वैसा ही उत्साह भर फिरती हैं। सखेवचन सुखी सं-- ( अर्थ )-सोत की [ जो ] दुःसह साले ( व इत्यादि के गड़ने की सी पीड़ा ) [ होती ] हैं, उनको [ यह अपने ] हृदय में, [ अपने ] पति के [ अन्य ] विवाह में (के अवसर पर ), [ कुछ भी ] नहीं गिनती, [ प्रत्युत ] रूप [ तथा ] गुण का गर्व धारण किए अछेह ( अव्यवहित ) उछाह ( उत्साह ) से फिरता है ॥ डिगत पानि डिगुलात गिरि लाग्छ सय ब्रज बेहाल । कंपि किसोरी दस कै', खरै लजाने लाल ।। ६०१ ॥ ( अवतरण)-- जिस समय इंद्र के कोप से त्रजवासियों की रक्षा करने के निमित्त श्रीकृष्ण चंद्रजी ने हाथ पर गोवर्द्धन धारण कर रखा था, उस समय श्रीराधिकाजी उनको दिखाई दी। उनके दर्शन से, कंप साविक के कारण, श्रब्ण चंद्र का हाथ, जिस पर वह गोवर्द्धन धारण किए हुए थे, कुछ डिग गया, जिससे वह पहाड़ डगमगाने जगा । इस डगमगाहट से त्रवासियों को घबराया हुआ देख कर श्रीकृ.एणचंद्र को बड़ी वजा हुई । लज्जा के दो कारण थे--प्रथम तो यह विचार कि इस कंप से हम गि का गूद प्रेम लक्षित हो जायगा, और दूसरे यह भावना कि हमारे भाँ को ऐसा भय उपस्थित हुआ । ऐसे गूद प्रेमी तथा भवत्सल भगवान् का ध्यान कवि इस दोहे से करता है। ( अर्थ )-हाथ के 'डिगत' ( डिगते हुए, डिगने के समय, डिगने के कारण ) [ गोवर्द्धन ] गिरि के ‘डिगुलात' (डगमगाते ही ) सब व्रज ( व्रजवासियों ) को बेहाल ( विल, व्याकुल ) देख कर, किशोरी ( श्रीराधिकाजी ) को देख कर कंपित हो जाने से, लाल (श्रीकृष्णचंद्र ) स्वरे ( बहुत ) 'खजाने' ( सजित हुए } ॥ और सबै हरषी हँसतिं, गावतं भरी उछाह ।। तुहीं, बहू, बिलखी फिरै क्यौं देवर के व्याह ॥ ६०२ ।। १• गुखात ( ३ ), कर लेत गहि (४) । २. कैंपति ( ४ ) । ३. परसि ( २ ) । ४. के ( २, ३ ), को (४), के (५)। ५. लजाएँ ( ३, ५)। ६. तू दुलहिन ( २ )।