२४६ बिहारी-रत्नाकर उस 'बिजना' ( व्यजन, पंखे ) की ‘वाइ’ (वायु) लगने से[यद्यपि उसके] तन की 'तपति' ( तपन )[ तो तुमसे प्रेमपहार पने के आनंद से ] टली, [पर ] तो भर ( तपन के इस जाने पर भी ) [ वह सात्विक के ] पसीने से नहा चली ॥ ध्यान अनि ढिग प्रानपति रहति मुदित दिन राति । पलकुकॅपति, पुलकति पलकु पलकु पसीजतिजति ।। ५९४ ।। ( अवतरण )--नायिका की स्मृति दशा का वर्णन सखा सखी से करती है ( अर्थ )-- प्राणपति ( प्राण के स्वामी, प्रियतम ) को ध्यान मैं [ अपने ] पास ला कर [ वह ] दिन रात प्रसन्न रहती हैं, 'पलकु' (पल मात्र, कभी) काँपती, ‘पलकु' (कभी) पुल*नी (रोमांचित होती ), [ और] ‘पलकु' (कभी) पसीजती (पसीने से भीगत ) जाती है। ‘जति', इस शब्द से यह पंजित होता है कि कंप, पुलक तथा स्वेद रात दिन पारी पारी से होते ही रहते हैं । ‘१लकु' शब्इ यहाँ क्रिया-विशेषण-रूप से प्रयुक्र हुअा है। ऐसे क्रिया-विशेषण संस्कृत में भी द्वितीयांत प्रयुक्त होते हैं । सकै सताइ न तमु बिरहु निसि दिन सरस, सनेह । है वंहै लागी दृगनु दीपलिया सी देह ।। ५५ ॥ ( अवतरण )-प्रोपितपतिका नायिका का संदेश ले कर कोई आया है, और कहता है कि उसकी तो आपके विरह मैं दारुण दशा हो रही है, जैसा मैं आपसे निवेदन-कर चुका हूँ, अब आप जो कहिए, वह जा कर मैं उससे कहूँ । नायक यह सोच कर कि एक ते वह बेचारी अपने विरहदुःख के मारे याँ ही विकल हो रही है, उस पर यदि मुझे दुःखित तथा कातर सुनेगी, तो फिर न जानें उस पर क्या बीतेगी, अपने दुःख को प्रकट नहीं करता, प्रत्युत कहता है कि मैं तो उसके ध्यान में ऐसा मग्न रहता हूँ कि मुझे विरह-दुःख व्याप्त ही नहीं होने पाता । इस कथन से नायक और भी दो अभिप्राय व्यंजित करता है—एक तो यह कि उसके। क्षण मात्र भूलता नहीं, और दूसरा यह कि उसे भी मेरी ही भाति धैर्य धारण कर के मेरे ध्यान से विरह-दुःख का निवारण करना चाहिए | ( अर्थ )-[ मुझे ] तम [ अर्थात् ] विरह सता ( दुःख दे ) नहीं सकता. [ क्यों कि] रात दिन वही ( उसी की ) सनेह ( नेह अर्थात् स्नेह-युत ), सरस ( रसीली ) देह दीपक शिखा ( दीपक की टेम ) की भाँति [ मेरे ] इगे में लगी रहती है ( मेरी आँखों के प्रति समाप उपस्थित रहती है ) ॥ । विरह-जरी लखि जीगर्नेनु कह्यौ न डहि कै बार। अरी, उ भजि भीतरी; बरसत आजु अँगार ॥ ५९६ ।। | १. रहें ( ३ ) । २. उही ( ३ ), उहें ( ५ ) । ३. जियगननु ( ३, ५) । ४. जान्ह ( ४ ) । ५. बरषत ( ३, ५) ।