विहारी-रत्नाकर अनियारे, दीरघ दृगनु किती न तरुनि समान । वह चितवन र कछु, जिविस होत सुजान ।। ५८ ॥ | ( अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्रि है कि बाह्य सौंदर्य मैं तो संसार की अनेक वस्तुएँ एक । सी ज्ञात होती हैं, पर सुजान लोग जिसमें कोई विशेष अतिरिक भाव होता है, उसी से अनुरङ्ग होते हैं। जैसे कि दृ तथा करदार दृग वाली अनेक विवाँ संसार में होती हैं, पर सुजान चोग सभी से अनुरक्त नहीं होते । र तो अनुरक्र करने वाली एक विशेष प्रकार की चितवन होती है। जो किसी ही किसी की अस्बिों में होती है । यह दोहा ऐसे स्थान पर पढ़ने के बाग्य है कि जब कोई राजा अथवा धनी यह सोचे कि हम धन दे कर अमुक गुण को वश कर लेंगे, पर वह गुणी उसके स्वभाव से प्रसन्न न हो कर उपके या न रहे, प्रत्युत किसी और के स्वभाव तथा सन्मान से सतुष्ट हो कर उसके यहां निवास करे| ( अर्थ )-अनियारे ( कोरदार ) [ तथा ] दीर्घ रगों में ( के कारण ) [ संसार में ] कितनी तरुणियाँ एक ही सा नहीं हैं ! [ परंतु सबकी चितवने एक सी नहीं होतीं ] वह चितवन कुछ और ही ( किभी विशेष प्रकार की ओर किसी ही किसी में ) होती है, जिससे सुजान ( गुणीजन ) वशीभूत होते है ॥ झुक झुक झपकै पलनु, फिरि फिरि जुरिजमुहाइ । बाँदि पिअागम, नीद-मिसि, द सब अंली उठाइ ।। ५८६ ।। जुरि =अंगड़ाई ले कर ।। बांदि = जान कर. ग्रन्मान कर के ।। ( अवतरण )-प्रदा वाकसज्ञा नायिका की चातुरी का वर्णन सखी सखी से करती है ( अ ) - [ इसने ] प्रियतम का आगम [ प्रेमाधिक्य के कारण अपने हृदय में ] ‘बादि' ( अनुमानित कर ), झपकते हुए से पलकों से ( सहित ) झुक झुक कर, [ और ] फिर फिर ( वारंवार ) अंगड़ाई ले ले कर [ तथा ] उँभा जैन कर. 'ईद मिसि' ( नई के बहाने, अर्थात् इस बात का झूठ ही दिखला कर कि मुझ को नींद आती हैं ), सव सखियाँ [अपने पाम से ] उठा द’ | और अपने शय्यागृह में एकांत कर लिया ] ॥ । बिहारी ने ‘पल' शब्द का प्रयोग संकृत के अनुसार पुलिंगवत किया है। पर भाषा में 'ज' तथा ‘पत्नक' शब्द का स्त्रीलिंग-प्रयोग देता है ॥ ओछे बड़े न है सकें, लगौ सतर है गैन । दीरघ होहिं न नैंक हूँ फरि निहारें नैन ।। ५९० ( अवतरण )-अवि की प्रास्ताविक उकि है कि अछे मनुष्य चाहे कितने है। ऊँचे बनें, पर बड़े नहीं हो सकते - ( अर्थ )-[ चाहे ] ‘सतर' हो कर (तनेने हा कर, ऐंठ कर) गैन' (गगन, अाकाश) १. पिय के आगम ( २ ), जानि पिपागम (४) । २. सखी ( २ ) । ३. हॉ६ ( २, ४) !