२४२
बिहारी-रत्नाकर जाय, ‘नहीं नहीं' की । नायिका की वह चेष्टा नायक के हो मैं गड़ गई और उसको उससे मिलने के निमित्त उत्सुक कर रही है । अतः वह इस व्यवस्था को किसी दूती अथवा नायिका की सखी से करता है, जिसमें वह मिलाने का उद्योग करे । 'दिठावित्री की ईठि' तथा 'करि ललचाँही दाठि' से वह यह व्यंजित करता है कि मुझसे उससे पहले से कुछ परिचय भी हैं, और उसको भी मुझसे मिलने की अभिलाषा है, अतः तुझको इस कार्य में विशेष कठिनता न पड़ेगी--
( अ )-'दिठादिठी' ( देखादेखी ) की 'ईठि' ( मैत्री, जान पहिचान) से (के कारण) [ ढिठाई कर के एक दिन उसको ] सूने घर में पा कर [ उसका ] हाथ पकड़ते हुए वह ललचौहाँ ( लालच-भरी ) दृष्ट कर के 'नाहीं करती हुई [ मेरे ] चित्त में गड़ गई !!
पिय कैं ध्यान गही गही रही वही है नारि ।
अपु आपु हीं आरसी लखि रीति रिझवारि ।। ५८३ ।। रिझवारि = रूप गुण पर रीझने की योग्यता रखने वाली ॥ | ( अवतरण )---- नायिका, नायक के ध्यान में निमग्न हो हो कर,तद्रूप हो रही है, और नायक हैं। की मनोवृत्ति सी उसका भी मनोवृत्ति हो गई है । अतः जिस प्रकार नायक उसको देख कर रीझता है, उसी प्रकार वह अपना रूप आरसी मैं देख कर रीझती है । सखो-वचन सखी से
( अर्थयितम के ध्यान से गही गही ( ग्रस्त हो हो कर ) [ यह ] नारी [ भुंगी-ग्रस्त कीट की भाँति ] वही हो रही है ( अपने को प्रियतम ही समझने लगी है ), [ अतः यक्ष् ] 'रिझवारि' अपने ही को आरसी (दर्पण ) में देख कर आप ही रीझती ( प्रसन्न होती ) है ॥
बुरौ बुराई जौ तजै, तो चितु खरी डरातु ।
ज्यौं निकलंकु मयंकु लाव गर्ने लोगे उतपातु ॥ ५८४ ॥ ( अवतरण )--कवि की प्रास्ताविक उक्ति है
( अर्थ ?-- यदि तुरा [ मनुष्य ] चुराई छोड़ दे, तो चित्त बहुत डरता है, जिस प्रकार चंद्रमा को कलंक-रहित देख कर लोग उत्पात गिनते ( संभावित करते ) हैं ॥
ज्योनिष का मत है कि जब संसार में कोई बड़ा उपद्रव होने को होता है, तो चंद्रमा निरुकलंक दिखाई देता है ॥
मरिचे कौ साहसु ककै बर्दै विरह की पीर ।
दौरति है सही ससी, सरसिज, सुरभि-समीर ॥ ५८५ ।। ( अवतरण )-प्रोषितपतिका नायिका की दशा सखियाँ आपस में कहती हैं-- १. रहिवे की ( ३, ५) । २. रिझवात ( ३, ५ ) । ३. छिनु ( २, ४) । ४. लोक ( ३, ५) ! ५. क ( २ ) । ६. समुहे ( ४ ) ।
पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२८५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२४२
बिहारी-रत्नाकर