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बिहारी-रत्नाकर २३६ | ( अर्थ )-अरी, इस वसंत ऋतु में ‘बात' ( वायु ) न [ तो ] खरी( बहुत ) गरम है, [ और ] न [ बहुत ] शीतल [ ही ] [ अतः इस समय पसीने अथवा पुलक के होने की संभावना विना किसी गुप्त कारण के नहीं है । सो इस नायक को देख कर ही तुझे रवेद और पुलक हो गए हैं, जिससे तेरा अनुराग लक्षित होता है। यदि ऐसा नहीं है, तो तू ही ] कह, [ तेरे ] पुलक झलके हुए [ तथा ] गात्र पसीजे हुए क्या देखे जाते हैं। चित पितमरिक-जोगु गनि भयौ, भयँ सुत, सोगु । ' फिरि हुलैयौ जिय जोइसी समुझै जारज-जोगु ।। ५७५ ।। ( अवतरण }-यह दोहा हास्य रस का है। कवि किसी ज्योतिषी की व्यवस्था उसकी हँसी उड़ाता हुआ कहता है ( अर्थ )-[ ज्योतिषीजी के जब लड़का हुआ, और उन्होंने उसकी जन्मकुंडली वना कर ग्रह-संस्था पर विचार किया, तो पहिले तो उस कुंडली में ] पितृमारक ( पिता के मार डालने वाले ) योग की गणना कर के [ उनके ] चित्त में सुत होने पर [ प्रसन्नता के स्थान पर ] 'सोगु' (शोक ) हुआ । [ परंतु ] फिर [ उस लड़के के जन्म में j जारज-योग ( पितातिरिक्त किसी अन्य पुरुष से उत्पन्न होने का योग ) समझ कर ज्योतिषाजी [ अपन] जी ही जी में [ संकुचित तथा अप्रसन्न होने के बदले ] हुलसे (उमगे, हर्षित हुए ) ॥ । चमचमात चंचल नयन बिच घूघंट-पट झीन । मानहु सुरैसरिता-विमलजल उछरंत जुग मीन ।। ५७६ ॥ ( अवतरण )-सखी नायिका के नेत्र की प्रशंसा नायक से कर के उसकी रुचि बढ़ाती है ( अर्थ )-[ उसके ] चंचल नयन झीने (पतले, महीन ) पूँघट-पट ( पूँघट के कपड़े ) के वच में से ( भीतर से ) [ ऐसे ] चमचमाते ( चमकते हुए हिलते ) हैं, मानो सुरसरिता ( गंगा ) के विमल ( स्वच्छ ) जल में दो मीन (मछली ) उछलते हैं ॥ रहि मुंह फेरि कि हेरि“इत; हित-समुही चितु, नारि ।। डीठि-परैस उठि पीठि के पुलके हैं पुकारि ॥ ५७७॥ ( अवतरण )-नायिका उपपति को देख कर, अपनी अनुरागीकृति छिपाने के लिये, सखियाँ १. पितुमारक ( ३ ), पितुमारिग ( ४ ) । २. गुनि ( ४ ) । ३. अति हुलस्या ( ३, ५ ), मनु हुलस्यो ( ४ ) । ४. जतिसी ( २ ), जोयसी ( ३ ) । ५. समझयो : २) । ६. चलत नमकि ( २ ) । ७. चूँघुट ( ४ ) । ८. सुरसलिता ( ३, ४, ५) । ६. उछलत ( ३, ४, ५ ) । १०. हरियत ( ३, ५ ), हेरिहाँ ( ४ ) । ११. समुझौ ( ४ ) । १२. परसि ( २, ३, ५ ) । १३. के ( ३, ४)। १४. कहति (३,५) ।