पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२८१

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२३८
बिहारी-रत्नाकर


२३८ विहारी-राकर ( ३वतरण )- नायिका का पति विदेश से आने वाला है। इसकी सूचना उसकी बाई बाँह, फक कर, दे रही है। अतः वह शुभ संवाद देने वाली ऐसी बाँह को पुरस्कार देने की प्रतिज्ञा करती है | ( अर्थ )-[ हे मेरी ] वाइँ बाँह ! [ तु जो इस समय ] फड़क रही है, [ उससे प्रियतम का शुभागमन सूचित होता है। इस सूचना के अनुसार ] यदि [ मेरे ] 'जीवनमूरि' ( प्राणों के आधार ) हरि ( श्रीकृष्णचंद्र ) [मुझे आ ] मिलें, तो [ मैं इस शुभ सूचना के पुरस्कार में तुझे यह परम सुख देंगी कि ] दाहिनी [ बाँह ] को दूर रख कर तुझी से [ उनका ] आलिंगन करूँगी ॥ छुटै छुटावत जगत हैं सटकारे, सुकुमार । मनु बाँधत बेनी-बँधे नील, छबीले बार ॥ ५७३ ।। | ( अवतरण )–नायक ने नायिका के केश खुल तथा बँधे, दोन रूप में देखे हैं, और दोनों ही रूप शसको एक दूसरे से अधिक मनोहर लगे हैं। अतः उनके देखने से उसके मन की जो व्यवस्था हुई, उसका वर्णन वह सखी से करता है-- ( अर्थ )-[ उसके ] छुटे हुए सटकारे ( साटी के से लंबे, पतले तथा लचकत्ते ) [ तथा ] सुकुमार (कोमल ) [ बाल तो ] जगत् स [ मन को ] छुटा देते हैं (अर्थात् उनको देख कर फिर मन जगत् की किसी और वस्तु में नहीं लगता ), [ और उसके ] वेणी-बँधे (चोटी गुंथे हुए ) नीले [ तथा ] छबीले बाल मन को बाँध लेते हैं (अपने पर आसक्त कर लेते हैं ) [ भाव यह कि उसके बाल दोनों ही अवस्था में परम सुंदर और मनोहर लगते हैं ]॥ | दोहे के उत्तरार्द्ध में जो 'वार' तथा 'मनु' शब्द बाँधत क्रिया के कता तथा कर्म रूप से आए हैं, वहीं पूर्वाई में जो ‘छुटावत' क्रिया है, उसके भी कता तथा कर्म हैं॥ ‘कुटावत' क्रिया का कर्ता जो ‘बार होता है, उसके विशेषण ‘सटकार' तथा 'सुकुमार' हैं, क्योंकि खुले हुए बालों की सटकारता तथा सुकुमारता ही पर विशेषतः ध्यान जाता है। इसी प्रकार वेणी गॅथे हुए बाबाँ की नीचिमा ही पर ध्यान अधिक आकर्षित होता है, अतः वैनी-धे बार' के विशेषण ‘नी, छबीजे' रक्खे गए हैं। इहँ बसंत न खरी, अंरी, गरम न सीतल बात ।। कहि, क्य झलके देखियत पुलके, पसीजे गात ॥ ५७४ ॥ ( अवतरण )-नायिका सखियाँ मैं बैठी है, और उपपति नायक उसके सामने आ गया है । उसे देख कर नायिका को वेद तथा पुलक सात्त्विक हुए हैं। इन भाव से कोई सखी उसका अनुराग लक्षित कर के कहती है १. कुटdि ( २, ३, ५ ) । २. खरी ( ४ )। ३. गरम् ( ४ ) । ४. हुलसे ( ४ ) । ५. पुलाक ( २, ४) ।