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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर ३३७ तक चोट करते हैं । इन बाणों के चलाते समय लव का अनुसंधान, अर्थात् उसकी दूरी, उँचान निचान तथा दिशा का तर्क, करना पड़ता है। इसी कारण कवि ने तंकि ( तर्क कर के ) को प्रयोग किया है। जब इस नलिका मैं अग्नि दी जाती है, तो रंजक के उड़ने से एक प्रकाश सा होता है, जिस पर विचार कर के कवि ने ‘पावक-झर सी झमक के कहा है। यहाँ झरोखे को कवि ने नलिका, नायिका के रूप के प्रकाश को अग्निसंचार की चमक एवं नायक पर दृष्टि की चोट को नाव क-सर का लगना माना है । तिलकु=तिल मात्र, जण मात्र । क्षण मात्र से कवि यह व्यंजित करता है कि नायिका नविक चलाने में ऐसी दक्ष है कि उसको लक्ष का अनुसंधान करने में विलंब नहीं लगा, और देखते ही तर्क कर के अचूक बाण मार गई । ताँकि = तर्क कर के, मेरी स्थिति का पूरा अंदाजा कर के । ताँक शब्द 'त' शब्द से बना है। जब किसी संयुक्त वर्ष में से एक वर्ष का लोप होता है, तो प्रायः उसके पूर्व का वर्ग सानुर रार हो जाता है, जैसे ‘वक्र' से 'बंक', 'कर्कट से कंकड़' इत्यादि । फिर इसी अनुस्वार के स्थान पर श्रद्धचद्र प्रयुक्त होता है, जैसे बंक' से 'बाँक' तथा 'कंकड़ से 'काँकड़ । पावक-झर= आग की लपट । झमवि: कै = शीघ्रतापूर्वक अपना प्रकाश दिखला कर ॥ ( अवतरण )-नायिका झरोखे मैं से नायक पर कटाक्ष कर के हट गई है। नायक सन कटाक्ष से घायल हो कर उससे मिखने के निमित्त विकल है, अतः अपनी दशा नायिका की सही अथवा दूती से कह कर उससे मिलने की प्रार्थना व्यंत्रित करता है ( अर्थ )-[ वह ] तरुणी झरोखा झाँक कर [ एवं ] क्षण मात्र इत ( मेरी ओर ) अनुसंधान कर के, अग्नि की ज्वाला सी झमक कर, [ मुझ पर ] नावक बाण से ‘लाइ कै' ( लगा कर, मार कर ) गई ( हट गई ) ॥


---- सुख सौं बीती सब निसा, मनु सोए मिलि साथ।

मूका मेलि गहे, सु छिनु हाथ न छोड़े हाथ ।। ५७१ ॥ मूका= भीत का वह छेद, जिसमें से उजाले अथवा हवा का संचार होता है । ( अवतरण )-उपपति नायक तथा परकीया नायिका पड़ोसी हैं। उनके घरों के बीच केवल एक भीत मात्र का अंतर है, जिसमें एक मूक भी हैं । एक रात को उस मूके में हाथ खाज कर दोन ने एक दूसरे के हाथ पकड़ लिए, और स्पर्श-मुख मैं मग्न हो कर हाथ पकड़े ही पकड़े रात बिता है । सखी-वचन सखी से| ( अथ )-मूके में [ हाथ ] डाल कर [ दोनों ने जे एक दूसरे के हाथ ] पकड़े, सो हाथ [ फिर] हाथ से क्षण मात्र नहीं छोड़े, [ एवं वैसे ही हाथ पकड़े पकड़े] सारी रात [ ऐसे ] सुख से वीत गई, मानो [ दोनों एक ] साथ मिल कर सोए [ थे ]॥ बाम बाँहे, फरकैति; मिलें जौ हरि जीवनमूरि।। तौ तोहीं स भेटिड राखि दाहिनी दूरि ॥ ५७२ ॥ १. जनु ( ३, ५) । २. इक ( २ ), एक ( ४ ) । ३. गए ( ३, ५) । ४. बाहु ( २, ३, ५ ) । ५. फरकत ( २, ३, ५) ।