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प्राक्कथन अचल बिराजै पतसाही राव....... अस्तुति कहि न जात पेख्यौ रसना । क, ख, ग, घ ॥ यह लिखना वैसा ही है, जैसे बहुधा अाठ दस वर्ष के बालक अपनी पुस्तकों के पांडु-पत्रों पर लीपा-पोता करते हैं। इस पुस्तक के विषय में, जयपुर में, यह प्रसिद्ध है कि इसे बिहारी ने कुँवर रामसिंह जी के पढ़ने के निमित्त लिखवा दिया था, जिनको वह स्वयं पढ़ाते भी थे । इसमें ५०० दोहे तो उन्होंने आदि में अपने रखे थे, और फिर थोड़ी थोड़ी कविता अन्य कवियों की संग्रह कर दी थी । दोहे तो इस पुस्तक में अच्छे अक्षरों में और बहुत कुछ शुद्ध भी लिखे हुए हैं, किंतु अन्य कविताओं के अक्षर भद्दे तथा कचे हैं, और कई लेखकों के लिखे प्रतीत होते हैं। ज्ञात होता है, बिहारी ने अपने दोहे तो अपनी शुद्ध लिखी हुई चौपतिया में से किसी अच्छे लेखक से उतरवा दिए, और शेष कविताएँ भिन्न भिन्न चौपतियों में से कई लेखकों द्वारा लिखी गई ॥ | यह पुस्तक कुँवर रामसिंह जी के पढ़ने के निमित्त लिखी गई थी, यह बात उसमें जहाँ तहाँ की गई लीपापोती से भी पुष्ट होती है। क्योंकि बाल-बृद प्रायः इसी प्रकार अपनी पाठ-पुस्तकों पर अपना नाम लिखते और चीतचात किया करते हैं । इस चीतचात को कुँवर रामसिंह जी के हाथ की मानने में कोई असंगति भी नहीं प्रतीत होती, क्योंकि एक तो इसमें रामसिंह जी का नाम दो एक स्थान पर लिखा हुआ है, दूसरे पुस्तक की आकृति मे उसको ढाई तीन सौ वर्ष का लिखा हुआ होना भी ठीक ऊँचता है, और तीसरे बिहारी के दोहों के अतिरिक्त और जिन जिन कवियों की कविताएँ उसमें संगृहीत हैं, वे बिहारी के समकालीन अथवा कुछ पूर्व के हें ॥ | इस पुस्तक के अंतिम दोहे पर ५०० का अंक लगा हुआ है, पर गिनती में वस्तुतः इसमें केवल ४६३ ही दोहे हैं । लेखक के प्रमाद से बीच बीच के अंकों में गड़बड़ हो गई है, और उसी गड़बड़ के अनुसार जहाँ ५००वाँ अंक पूरा हुआ, वहीं उसने बिहारी के दोह का लिखना समाप्त कर दिया, क्योंकि उसे कदाचित् ५००ही दोहे लिखने की आशा मिली थी। इस संग्रह में भी जो दोहे बिहारी के हैं, उनका पूर्वापर क्रम वही है, जो रत्नकुंवरि घाली प्रति में। केवल दो चार स्थानों पर कुछ उलटपुलट है । अतः इस पुस्तक से भी यही लक्षित होता है कि यही क्रम विहारी के दोहों के निर्माण का है ॥ | इस पुस्तक की प्रतिलिपि प्राप्त करने में बड़ी कठिनाइयाँ पड़ । उनको यहाँ वर्णन करने से कुछ लाभ नहीं; केवल इतना ही कहना अलम् है कि हमारे पंडित जी महाशय को इस कार्य के निमित्त जयपुर में ३ महीने १० दिन लग गए। इस अवसर में उन्होंने जयपुर के कई प्रतिष्ठित महानुभाव से परिचय प्राप्त किया, और अन्य पुस्तकों का भी पता लगाया। इस खोज में उन्हें अनेक पुस्तकें दृष्टि-गोचर दुईं। उनमें से जो विशेष महत्वपूर्ण समझी हैं, उनकी प्रतिलिपियाँ भी वह ले अाए । जयपुर के जिन सत्रों से डित जी ने परिचय प्राप्त किया, उनमें से मुख्य मुख्य ये हैं