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विहारी-रत्नाकर दोऊ अधिकाई-भरे एकै गौं गहराई । कौनु मनावै, को मनै, मने मन ठहराइ ॥ ५५६ ॥ ( अवतरण )-नायक नायिका, दोन अपने अपने रूप यौवन के घमंड में हैं। प्रत्येक समझता है कि मुझसे बोले विना दूसरे से न रहा जायगा । एक समय दोन ने, यह ठान कर कि देखें, परिबे कौन मनाता है, और कौन मानता है, परस्पर प्रणय-मान किया है। इसी का वर्णन कोई सल्ली किसी अन्य सखी से करती है ( अर्थ )-मनों को ठहरा कर ( स्थिर कर के, रोक कर )[ यह बात ] माने हुए[ कि देखें , ] कौन मनाता है, [और ] कौन मानता है, दोनों ( नायक तथा नायिका) एक ही गों ( अभीष्ट, मतलब, उद्देश्य ) से [ कि वह अन्य मुझको मनावे ] गहरा कर (ओठों ही में कुछ गर्वयुत बुड़बुड़ा कर ) अधिकाई (उत्कर्ष, अपनी अपनी बात रखने की अभिलाषा की अधिकाई) से भरे हुए हैं। इस दोहे मैं गहराना शब्द बही है, जो काशी तथा अवध के प्रांत मैं गहराना अथवा गभुराना बोला जाता है । उर लीनै अति चटपटी, सुनि मुरली-धुनि, धाइ । हौं निकैसी हुलसी, सु तौ गौ हुल सी हिय लाइ ॥ ५६० ।। ( अवतरण )–विप्रलब्ध नायिका, संकेतस्थत मैं नायक से भेंट न होने पर, लौट आ कर अपना दुःख अंतरंगिनी सखी से कहती है | ( अर्थ )-[ संकेत-निकुंज से नायक की ] मुरली की ध्वनि सुन कर उर में अति : चटपटी ( शीघ्रता, शीघ्र मिलने की अत्युत्कृष्ट अभिलाषा ) लिए हुए [ तथा, इस आशा से कि उससे मिलन होगा, ]हुलसी हुई दौड़ कर मैं [ घर से निकली । [ पर अपने भाग्य की हीनता क्या कहूं, ] वह तो [ मेरे वहाँ पहुँचने के पहले ही मेरे ] हृदय में हुल ( तलवार, बर्डी इत्यादि की कॉच) सी लगा कर [ वहाँ से ] चला गया । ब्रजबासिनु कौ उचित धनु, जो धन रुचित न कोई। सु चित न यो ; सुचित कहो, कहाँ हैं होई ॥ ५६१ ॥ इस दोहे मैं जो ‘धन' शब्द दूसरी बार पर है, उससे धोखा खा र टीकाका ने न जानें क्या क्या मनमाने अर्थ इस दोहे के कर आये हैं। किसी किसी ने तो इसके पाठ मैं भी अपनी कल्पना के अनुसार अंतर कर के कई न कोई अर्थ पहना दिया है। अनवरधि में जो धन' के स्थान पर 'नवपन' पाठ बनाया गया है। अमरचंद्रिका में 'रुचित' के स्थान पर 'त' है। हरिप्रकाश टीका में 'बो' के स्थान पर “सो' तथा 'लचित' के स्थान | १. कौन (४, ५) । ३. मान्वे (२)। ३. मत (२)। ४. हुलसी निकसी ( २ ) । ५. उर ( २ ), ही ( ५ ) । ६. अावे (४)।