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बिहारी-रत्नाकर २२९ गई जल जाने अथवा भीग जाने पर नहीं उड़ती । पर उसके हृदय में यह विलक्षणता है कि वह जलने तथा भीगने पर भी उड़ा रहता है । -- ---- उरु उरुझयौ चितचोर सौ, गुरु गुरुजन की लाज । चर्दै हिडोरै मैं हियँ कियें बनै गृह-काज ॥ ५५४ ॥ ( अवतरण )--उधर तो नायिका का मन नायक से अनुरक़ हो रहा है, और इधर उसको ने की ताज़ा है। इन दोनों की खींचातानी मैं यद्यपि वह घर के कामकाज करती तो है, पर ठीक ठीक नहीं कर सकती । अंतररांगनी सखियाँ उसकी यह दशा आपस मैं कहती हैं | ( अर्थ )-[ इसका ] उर [ एक ओर तो ] चितचोर ( नायक ) से उलझा ( फंसा ) हुआ है, [ और दूसरी ओर ] गुरुजन ( सास, जेठानी इत्यादि ) की गुरु ( भारी ) लजा है। [ इसी खींचातानी में इस धेचारी से घर के कामकाज यद्यपि यथार्थ रीति पर नहीं हो सकते, तथापि ऐसे ] हिँडोले पर चढ़े हुए हृदय से [ भी उसको ] गृह-काज किए [ ही ] वता है ।। पट सौं” पछि परी करौ, खरी-भयानक-भेषं ।। नगिनि है लागति दृगनु नागबेलिहँगे-रेख ।। ५५५ ।। ( अवतरण )-खंडिता-वचन नायक से ( अर्थ )-[ हे लाल ! यह जो तुम्हारी ] आँखों में नागबेल ( पान ) के रंग की रेखा | है, वह मुझे ] बड़ी भयानक भेष ( वेष) वाली नागिन हो कर लगती है ( पीड़ा देती है ); [ अतः तुम उसको ] पट ( वस्त्र ) से पोंछ कर परी ( परे, दूर ) कर डालो ॥ लाल रंग की नागिन बड़ी ही भयानक तथा विषैली होती है ॥ तो लखि मो मन जो लही, सो गति कही न जाति । ठोड़ी-गाड़ गड़यो, तऊ उड़यो रहै दिन राति ॥ ५५६ ॥ गन्यौ-चित्त का किसी वस्तु में अटल रूप से लग जाना उसका उसमें गड़ जाना कहलाता है ॥ उथौ-चित्त का उड़ा रहना वाक्य व्यवहार में चित्त के स्थिर तथा ठिकाने, अर्थान् अपने वश में, न रहने को कहते हैं । ( अवतरण }-नायक नायिका की ठोड़ी की शोभा पर मोहित हो कर उससे कहता है ( अर्थ )-तुझको देख कर मेरे मन ने जो गति ( व्यवस्था ) धारण की है। वह कही नहीं जाती । [यद्यपि वह तेरी ] ठोड़ी की गाड़ में गड़ गया है ( अटल रूप से लग गया है ), तथापि दिन रात उड़ा रहता है ( ठिकाने नहीं रहता ) ॥ इस दोहे मैं विलक्षणता यह है कि गड़ी हुई वस्तु नहीं उड़ती, पर मन ठोड़ी-गाड़ में गड़े रहने पर भी उड़ा रहता है। यही विचित्र गति नायक के मन ने नायिका को देख कर प्राप्त की हैं। १. वेष ( २ )। २. रस ( ४ ) । ३. ठोढ़ी ( २ ) ।