इसके पश्चात् के पृष्ठों पर सुंदर, गोपाललाल, मुकुंद, गंग, चतुरलाल, मंडन तथा ब्रह्म इन कवियोँ की थोड़ी थोड़ी कविताएँ, ऊपर लिखे हुए दोहोँ ही के जैसे भद्दे अक्षरोँ मेँ, दी है। फिर 'अनुभव-प्रकाश' शीर्षक से ११२ दोहे लिखे हुए हैँ। इन दोहोँ के कर्ता का कोई नाम नहीँ दिया है। तदनंतर ९ दोहे फुटकर हैँ, जिनमेँ ५ तो बिहारी के हैँ, और शेष और किसी के। फिर कुछ बुझौबोलै हैं, और अंत मेँ ये दोहे—
एक वयस, एकै बिरछ, एकै भोग, बिलास।
सोन चिरैया उड़ि गई, (अब) गहौ राम-कर आस॥
चौहानी रानी लता, राम-रूप फल-फूल।
खग-मृग-मधुकर-बूंद सब, परे रहौ गहि मूल॥
सुचि सिँगार में बुड़ि कै भयौ बिहारी-दास।
जग हैं फिरत उदास अब सुकवि बिहारी-दास॥
मंडन मंडन कै जगत................."
इसके पश्चात् के कुछ पन्ने नहीँ हैँ। हाँ, इसी पन्ने पर, एक स्थान पर, क, ख, ग, घ, च, छ, झ, इ, उ, ण, य, र, ल, श, ष, ह' लड़कों के से अक्षरोँ मेँ लिखा है। फिर एक पृष्ठ पर यह लिखा हैँ—
शुक्लांबरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजं।
प्रसन्नवदनं ध्ययेत्सर्वविघ्नोपशांतये॥
देवान् पितृन् द्विजान् हव्यकव्याद्यैः करुणामया।
ततः प्रभृति पूज्यैते त्रैलोक्ये सचराचरे॥
ॐ विष्णे भास्वद क्रीट।
जल मैं बसै कमोदनी, चंदा बसै अकास।
जो जाके मन मैँ बसै, सो ताही के पास॥
इस पुस्तक के आरंभ में जो एक पत्र छूटा हुआ है, उसके पृष्ठ पर लड़कोँ के से अक्षरोँ मेँ ऊपर 'रामसिंह जी' लिखा है। फिर राग केदारोँ के शीर्षक से एक गीत की दो तुके वैसे ही अक्षरोँ मेँ लिखी हैँ, जो स्पष्ट पढ़ा नहीँ जाती। पर उस गीत का आरंभ यह है—
जाके रस कुँ जी तरसत।
फिर वैसे ही अक्षरोँ मेँ एक दोहा लिखा है, जो कुछ पढ़ा जाता है—
बौरी, बहकि न बोलियै, रहियै मन की गोई।
जग सौं कछु कहिये नहीँ, जो हरि-प्यारी होई॥
तदनंतर वर्णमाला के कुछ अक्षर अंट-संट लिखे हैँ। उनके अंत मेँ 'राम' शब्द वैसे ही अक्षरोँ मेँ है। फिर वैसे ही अक्षरोँ मेँ यह लिखा है—