पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२६९

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बिहारी-रत्नाकर


२२६ बिहारी-रत्नाकर | नाहिँन--यह दुहरा निषध-वाचक शब्द ब्रजमावा मैं नहीं है' के अर्थ में आता है। बिहारी ने इसको ४८:9-संग्व्यक दोहे में भी प्रयुक्त किया है। देव इत्यादि अन्य श्रेष्ठ कवियों ने भी इसको लिखा है ॥ | ( अबतरण )-प्रौदा खंडिता नायिका का वचन नायक से ( अर्थ )-[ मेरा हृदय-रूपी दाडिम ] तुम्हारे गुण( अवगुण )-रूपी कणों ( दान ) से ‘सुभर' (अच्छे भराव से, हँस हँस कर ) भर गया है, [ और तुम्हारे ] कपट ( १. दुराव। ३. आवरण अर्थात् वह कपड़ा, जो अनार के फलों पर, चिड़ियों से उनकी रक्षा करने तथा उन्हें शीघ्र पकाने के निमित्त, बाँध दिया जाता हैं ) की कुचाल ( १. बुरी चाल । २. बुरे अच्छादन ) से पकाया गया ( १. पीड़ित किया गया। २. परिपक्र किया गया ) है, [ तो फिर ] हे लाल, [यह ] हृदय जिस भाँति 'दास्य' (दाडिम) [दरकता है, उस भाँति ] 'क्य ध' ( न जाने क्यों ) दरक नहीं जाता ॥ अनार जब दान से भली भांति भर जाता और पक जाता है, तो दरक जाता है ।


---- चितु दे देवि चकोर-त्यौं, ती भजै न भूख ।।

चिनगी चुंगै अँगार की, चुगै कि चंद-मयूग्व ॥ ५४७ ॥ ( अवतरण ) --किसी उत्तम पद अथवा पदार्थ के अधिकारी को कोई निकृष्ट वइ अथवा पदार्थ देना चाहता है । वह उसको लेना अस्वीकृत कर के, अपनी चित्तवृत्ति के विषय में चकोर पर अन्योकिं कर के, कहता है कि या तो मैं जिस पद अथवा पदार्थ का अधिकारी हूँ, उसके न मिलने पर दुःख ही झेलँगा अथवा यदि मिल सकेगा, तो वही लँगा, जैसे चोर या तो चिनगी । चुगता रहता है, या चंद्रमा की किरण का अमृत ही पान करता है । | ( अर्थ :-[ नैक ] चकोर की ओर चित्त दे कर देख [ता कि उसका कैसा दृढ़ व्रत है कि ] या तो { वह ] गंगारे की चिनगियाँ चुगता है, या चंद्रमा की किरणें ही पान करता है, तीसरे [ पदार्थ ] का [ वह ] भूख में नहीं भजता ( भोगता अथवा ध्यान करता ) ॥ तुएँ कहति, हौं आपु हूँ समुझति सबै सयानु । लाग्वि मोहनु जौ मनु रहै, तौ मन राखौं मानु ।। ५४८ ॥ ( श्रवतरण )- सखा नायिका को मान करना सिखजाती है, और कहती है कि यदि त् बीच बीच मैं मान कर के उसको धमकाती न रहेगी, तो वह सर्वथा स्वछंद हो जायगा, और फिर संभव है कि शनैः शनैः किवी अन्य स्त्री के फंदे में ऐसा कैंस जाय कि तेरे हाथ ही से निकल जाम । ये री बातें उसने नायिका को पहले भी कई बार समझाई थी, पर उससे मान करते नहीं बनता था। इस बार उसके विशेष समझाने पर नायिका करती है कि तेरा उपदेश वो वास्तव मैं ठीक है, पर मैं क्या कहें, नाम का देस र मेरा मन अपने वश में न रहता १. चुनें ( २ ) । २. राखहु ( ३, ५ ) ।।