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विहारी-रत्नाकर २२५ आती है, त्यो त्यों खरी (अत्यंत ) उताल (उतावली अर्थात् शीघ्रता से ) झमक झमक कर (उत्साहपूर्वक जल्दी जल्दी अपने भूषणों को यजाती हुई चल चल कर ) [ घर की सब ] टहलें ( सेवाएँ, अपने करने के काम ) करती है ( निपटाए लेती है ) ॥ रही, पैज कीनी जु मैं; दीनी तुमहिं मिलाइ । राखंड चंपकमाल लौं, लाल, हियँ लपटाइ ॥ ५४४ ॥ ( अवतरण )-दूती-वचन नायक से ( अर्थ )-[ इस नायिका को प्राप्त होना तो बड़ा कठिन था, पर मैंने जो 'पैज' ( प्रतिज्ञा) की थी, [वह किसी न किसी प्रकार ]रह गई, [ और मैंने उसको ] तुमसे मिला दिया । [अब ] हे लाल, [ तुम इस चंपकवर्णी के अपने ] हृदय में चंपकमाला की भाँति लिपटा रक्खो [ देखो, ऐसा न हो कि इसका निरादर हो, जिससे फिर यह तुम्हारे पास न आवे ] ॥ दोऊ चाह-भरे कळू चाहत कह्यौ, कहैं न । नहिं जाँचकु सुनि, सूमल बाहिर निकसत बैंन ।। ५४५ ॥ ( अवतरण )-नायक नायिका, दोन एक दूसरे के वचन सुनने के अभिभाषी हैं, और परस्पर कुछ कहना भी चाहते हैं, पर नए स्नेह के कारण संकोच तथा जज्ञा-वश कहते नहीं । सखो-वचन सब्री से ( अर्थ )-दोनों [ एक दूसरे के वचन सुनने की ] चाह से भरे कुछ कहना चाहते हैं, [पर संकोचवश ] कहते नहीं। याचक ( मंगन, अपने से कुछ आकांक्षा रखने वाले ) को [ द्वार पर उपस्थित ] सुन कर ( जान कर )[ दोनों के ] वचन सुम ( कृपण ) की भाँति [ मुख-रूपी सदन से ] बाहर नहीं निकलते ।। । यद्यपि 'बैन' शब्द वचन से बनता है, और इसका बकार सानुनासिक नहीं है, पर व्रजभाषा के प्राचीन कवियाँ की यह परिपाटी थी कि जब किसी शब्द मैं कोई अनुनासिक अक्षर -जैसे न, म-- आता था, और उसके पूर्व का अक्षर निरनुनासिक तथा दीर्घ होता था, तो उस निग्ननासिक, दीर्घ अक्षर को सानुनासिक भी बोलने तथा त्रिखते थे। इसी परिपाटी के अनुसार बैन' का 'ब' सानुनासिक माना गया है। सुभर भयौ तुवगुन-कननु, पकयौ कपट-कुचाल । क्यौं ६, दारयौ ज्यौं, हियौ दरकतु नहिँन, लाल ॥ ५४६ ॥ | १. सु ( २, ४) । २. दोन्ही ( २, ४) । ३. तुमैं ( २, ४) । ४. राखौ ( २, ४) । ५. सी ( ४ )। ६. सुमर (४) । ७. गननु (४) । ८. पचयी ( ३, ४, ५ ) । ६. ल. (२) । १०. नाहाँ ( २ ), नहिँ नंदलाल (४) ।