________________
विहारी-रत्नाकर २३ छिप्य छवीलौ बँड लसै नीले अंधर-चीर । मनौ कलानिधि झलमलै कालिंदी के नर ॥ ५३८ ॥ ( अवतरण )-सखी नायक से नायिका की शोभा का वर्णन कर के उसकी रुचि उपजाती है ( अर्थ )-[ उसका ] छबीला मुख नीले अंचल-पट में छिपा हुअर [ ऐसा ] लसता ( शोभा देता ) है, मानो कलानिधि (चंद्रमा) कालिंदी के [ नीले ] नीर मैं झलमला। ( प्रतिबिंबित हो कर मंद लहरियों के कारण हिलती हुई अभिर दे ) रहा है। मानु तमासौ करि रही बिबस बारुनी सेइ ।। झुकति,हँसति; हँसि हसि झुकति, झुकिझुकि हँस हँसि देई ।।५३९॥ ( अवतरण )-नायिका वारुणी-पान कर के विवश हो रही है, और ऐसी ही अवस्था में उसने मान किया है, पर विवशता के कारण इसको खिझलाते समय इस अ जाती हैं, और फिर हंसते समय रोष हो अाता है। अतः उसका मान एक तमाशा सा हो रहा है। सखी-वचन सखी से ( अर्थ )-[ देख, यह ] वारुणी का सेवन कर के विवश हुई [ नायिका ] मान को [ पक] तमाशा कर रही है ( बना रहा है )। [ वह कभी ते ] झुकती ( झिइकतर, परुष वचन कहता ) है, [ और कभी ] हँसता है; हँस हँस कर [तो वह ]झुकती( खीझती ) है, [ और ] झुक झुक कर ( खीझ खीझ कर ) हँस हँस देती है [ अतः उसकी हँसी और झिड़की के मेल से मान के स्थान पर एक तमाशा हो जाता है ] ॥ सदन सदन के फिरन की सद् न छुटै, हरिराइ । रुचै, तितै बिहरत फिरौ ; कत बिहरत उँरु आइ ॥ ५४० ॥ ( अवतरण )-प्रौढ़ा धीरा खंडिता नायिका सापराध नायक से कहती है-- ( अर्थ ) हे हरिराय ( हरिजी महाराज ), [आपकी ] घर घर फिरने की ‘सद ( कुटेव, कुबान ) नहीं छूटती [ तो फिर अच्छा मैं ने संतोष कर लिया । मैं भी उसी मैं प्रसन्न हैं, जिसमें आपको आनंद मिले ] [ आपको जहाँ ]रुवे ( अच्छा लगे ), 'तितै' ( वहाँ ) विहार करते फिरिए, [ यहाँ ] कर [ मेरा ] हृदय क्यों 'बिहरत' (विदीर्ण करते ) हैं ॥ । 'हरिरा', यह प्रतिष्ठासूचक पद यहाँ क्षया शक्ति से अप्रतिष्ठा-सूचक है, जैसे कोई किसी अरराधी से कहे कि “भाइए, महाराज ॥ प्रलय-करन अरषेने लगे जुरि जलधर इकसाथ ।। सुरपति-गरहखी हरषि गिरिधरं गिरि धरि हाथ ।। ५४१ ॥ १. छप्यो ( ४ ) । ३. झीनैं ( २ ) । ३. अंचल ( २ ) | ४. इत (४) । ५. बरसन ( २, ४) ६. गर्व ( २ ) । ७. गिरधर ( ४, ५ ) । ८. गिरिधर ( २ ), गिरधर ( ३, ५ ) ।