given to him. It would, therefore, be convenient if you enquire from the Private Secretary to the Maharaja of Darbhanga, when they are going to send their Pandit for the purpose, and you can arrange to send your Pandit with him at the same time. I may also say that at least a week's notice should be given to us, as His Highness the Maharaja is shortly going out on a long tour, and His Highness' permission will be required before the manuscripts are shown to the Pandit.
Yours sincerely,
(Sd.) ABINASH CHANDRA SEN
Rai Bahadur, Member of Council (Foreign Department)
B. LALIT MOHAN SEN RAY
Pricate Secretary to His Highness the Maharaja of Benares,
Fort Ramnagar, BENARES.
यह शुभ समाचार पा कर हमने अयोध्या के राज-पुस्तकालय के अध्यक्ष श्री विद्या भूषण पं॰ रामनाथ जी ज्योतिषी को जयपुर भेजने का प्रबंध किया, क्योंकि उस समय हमारा जाना कई कारणोँ से न हो सका। सन् १९१९ के मार्च महीने की २५ तारीख को उक्त पंडित जी ने जयपुर को प्रस्थान किया। वहाँ पहुँच कर पहले तो उन्हेँ बहुत कठिनाइयाँ उठानी पड़ीँ, जो हिंदुस्थानी दरबारोँ में प्रायः उपस्थित होती हैँ। पर उक्त पंडित जी महाशय बड़े उद्योगी, चतुर तथा कर्म-कुशल हैं। शनैः शनैः सब कठिनाइयाँ दूर करके वह प्राचीन प्रतियोँ के अवलोकन तथा उनकी प्रतिलिपि प्राप्त करने मेँ सफल हुए। राज-पुस्तकालय के अतिरिक्त और भी कई स्थानोँ से उन्हेँ सतसई की कई प्रतियाँ मिलीं। उनमें से मुख्य मुख्य का वर्णन आवश्यकतानुसार यथास्थान किया जायगा॥
योँ तो उक्त पुस्तकालय में सतसई की कई प्रतियाँ हैँ, पर बिहारी के हाथ की लिखी कोई नहीँ निकली। जो प्रति सबसे प्राचीन है, उसकी प्रतिलिपि पंडित जी को बड़ी कठिनता से उतार मिली। इस प्रति मेँ केवल ४९३ दोहे हैँ। यह मिर्जा राजा जयशाह के पुत्र कुँवर श्री रामसिंह जी के पढ़ने के निमित्त लिखी गई थी। इसकी जिल्द चमड़े की है, और इसके अंत मेँ कुछ पन्ने अलग से सिए हुए हैँ। इसमें ४९३वेँ दोहे के पश्चात् और उसी पृष्ठ पर, जिस पर ४९३वाँ दोहा है, कुछ स्थान छोड़ कर, ये तीन दोहे, कुछ कच्चे अक्षरोँ मेँ, लिखे हैँ一
श्री रानी चौहानि कौ करतय देखि रसाल।
फूलति है मन मैँ सिया, पहिरि फूल की माल॥१॥
दान ग्यान हरि-ध्यान कौँ सावधान सब ठौर।
श्री रानी चौहानि है रानिनु की सिरमौर॥२॥
नित असीस हौँ देत हौँ उर मनाइ जगदीस।
राम कुँवर जयसिंह को जीयौ कोरि बरीस॥३॥