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बिहारी-रत्नाकर २१५ ( अवतरण )-नायक अन्य स्त्री के पास रात भर रह कर प्रातकाल इस नायिका के यहाँ अाया है, श्रार रात को अपने न आने के अनेक मिथ्या कारण गढ़ गढ़ कर कह रहा है। इतने मैं उसके भाव पर महावर की लीक नायिका देख लेती है, जिससे वह सच्चा कारण निश्चित कर के कहती है ( अर्थ )-[ मुझे ] दुःख देने ( और भी अधिक चिढ़ाने) के निमित्त [ २ ] मिथ्या वचन रच रच कर क्यों कहे जाते हैं । हे लाल, [ तुम्हारा ] सभी कहना सुनना महावर की लकीर देखने पर रह गया ( वृथा हो गया ) ।। लोपे कोपे इंद्र लौं रोपे प्रलंय अकाल । गिरिधारी राखे सबै गो, गोपी, गोपाल ।। ५२१ ॥ ( अबतरण )-कोई सज्जन भक़, किसी बलिष्ठ दुर्जन के द्वारा दुःख दिए जाने पर, अपने मन को धर्य देता है कि रे मन, तू घरा मत, धैर्य धारण कर, तेरे प्रभु गिरिधम्लाले भवत्सल हैं कि उन्हौंने समस्त ज के प्राणियों की रक्षा की, और ऐसे शक्ति-संपन्न हैं कि श्रीर की कौन कहे, इंद्र से प्रबल शत्रु भी उनके आगे भाग गए - ( अर्थ )-गिरिधारी ( गोवर्द्धन गिरि धारण करने वाले ) [ श्रीकृष्णवंद्र ] ने गउएँ, गापियाँ [ तथा ] गोपाल ( ग्वाल ). [ ये ] सब ही [ दुष्टों से ] रक्षित किए, [ एवं और की कान कहे ] विना समय का प्रलय रोपे ( प्रलय करना ठाने ) हुए कुपित इंद्र ऐसे [ शत्रु भी ] लोपे ( लुप्त किए, भगा दिए ) ॥ ढोरी लाई सुनन की, कहि गोरी मुसकात । थोरी थोरी सकुच सी भरी भरी बात ॥ ५२२ ॥ ढोरी= धुन, उत्कृष्ट अभिलाषा ।। ( अवतरण )-नायक ने नायिका को मुसकिरा कर भोली भोली बातें करते सुना है। उससे उसको ऐसा आनंद मिला है कि वैसी ही बातें सुनने की धुन लग गई है । अतः वह अपनी दृशा सखी से कहता है | ( अर्थ )—उस गोरी ( गौरवर्णी नायिका ) ने मुसकिराते हुए थोड़ी थोड़ी लजा से भोली भोली बात कह कर [ मुझे वैसी ही बात फिर फिर ] सुनने की दोरी ( धुन ) लगा दी है ॥ आज कळू औरै भए, छैए नए ठिकछैन । चित के हित के चुल ए नित के होहिं न नैन ॥ ५२३ ॥ ठिकठैन= ठाटबाट । चुगल = किसी के छिपे भेद को प्रकट कर देने वाले ॥ हहिँ-'होहिं १. प्रलै ( ३ ), प्रलौ ( ४, ५ )। २. मुसिकात ( २ ), मुसुकात ( ४ ) । ३, नए ए ( ४ ) । ४. जुगल (५)।