पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२५४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२११
बिहारी-रत्नाकर

________________

विहारी-रत्नाकर २११ इस दोहे मैं रँगीलैं', 'रतिज', 'सुख चैन' तथा 'हँस हैं' शब्द से सखी नायिका की रति लक्षित करना व्यंजित करती है ॥ कहा कुसुमु, कह कौमुदी, कितंक आरसी जोति । जाकी उजराई लखें अखि ऊजरी होति ॥ ५१२ ।।। ( अवतरण )-सखी, नायिका के गौर वर्ण की प्रशंसा नायक से कर के, स्त्रच उपजाती है, अथवा नायक नायिका का गुराई पर रीझ कर स्वगत कहता है ( अर्थ )-जिसकी उजराई ( उज्ज्वलता ) देखने पर आँख उज्ज्वल (ज्योति-संपन्न ) होती है, [ भला उसके आगे ] कुसुम ( पुष्प ) क्या वस्तु है, कौमुदी ( चाँदनी ) क्या है, [ और ] आरसी ( दर्पण ) में कितनी ज्योति ( चमक ) है ॥ ‘कुसुम' शब्द से यहाँ श्वेत अथवा पांत कुसुम ग्राह्य है ॥ पहिरत ही गोर गर्दै य दौरी दुति, लाल । मनी पररास पुलकित भई बौलसिरी की माल ।। ५१३ ।। बोलसिरी ( बकुलश्री )= मौलसिरी । मौलसिरी के वृक्ष को संस्कृत में बकुल तथा मकुल कहते हैं। बकुल श्री अथवा मकुल श्री का अर्थ बकुल अथवा मकुल की शोभा, अर्थात् पुष्प, होता है । प्राकृत में 'श्री' का रूपांतर 'सिरी' हो जाता है, अतः ‘बकुल श्री' से बोलसिरी अथवा बौलसिरी तथा मकुल श्री से मोलसिरी अथवा मौलसिरी बनता है। सतसया के केवल दो दोहाँ में बिहारी ने इस शब्द का प्रयोग किया है, और दोनों ही स्थानों पर 'बौलसिरी' रूप ग्रहण किया है । इस दोहे के भाव में कुछ ऐसी अस्पष्टता है कि इसका अर्थ भिन्न भिन्न टीकाका ने भिन्न भिन्न प्रकार से किया है, पर संतोषप्रद अर्थ कोई भी नहीं प्रतीत होता ॥ सतसैया के सबसे पहले टीकाकार मानसिंह ने इसका अर्थ यह लिखा है-“श्रीराधाजू के गोरे गैरै पहिरत ही लाल तमाक्ष-उप्प की मान्न ताकी ऐसी दुति दौरी । जानिये कै गोरे गरे मैं पुलक-भरी बोलसिरी की माल पहिरी है। इस अर्थ में टीकाकार ने 'लाल' का अर्थ लाल तमान-पुष्प की माल किया है। यदि लाल का अर्थ यह हो भी, तो भी इस अर्थ मैं दूरान्वये दोष पड़ता है ।। अनवर-चंद्रिका में इस दोहे पर यह लिखा है-*तो माला ले गई ही, ताक कुतत्व ते रोमांचित कहि नाइका को प्रेम नाइक स जतावति है।" इस अर्थ मैं यह नहीं समझ में आता कि माली के रोमांचित होने से नायिका का प्रेम कैसे प्रकट होता है ।। अमरचंद्रिका मैं यह लिखा है 'प्रश्न पुलकित सी होतहि सु तो मौलसिरी की माल । ताहि कहैं पुलकित भई परसै प्रश्न विसाल ॥ १. कितिक (२) ।