पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२५२

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बिहारी-रत्नाकर

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विहारीकर २०६ में परिगणित होगी । [ देख, ये सब गवाँरिने तेरे नागरिक व्यवहार पर ]gठा दे कर इठलाती हैं । इस दोहे के अर्थ में टीकाका के मत में भेद है। प्रायः टकाकारों ने इठलँहि' को विधिवाचक क्रिया मान कर उसका अन्वय से किया है। पर यह ठीक नहीं है। इस दोहे के भावार्थ का मिलान २७६:संख्यक दोहे से करना चाहिए । विथुस्यौ जीव सौति-पग निरखि हँसी गहि गाँसु।। सर्लज हँसौंहीं लखि लिय' अाधी हँसी उसाँसु ।। ५०७ ॥ गाँसु ( ग्रास ) =किसी की ओर हृदय में कुछ गुप्त भावना रखना ।। ( अवतरण )-नायिका, अपनी सौत के पाँवाँ मैं फैला हुआ महावर देख कर, पहिले तो चित्त मैं गान रख कर कि यह ऐसी फूहर है कि इसे महावर देना नहीं अता, हँस, पर फिर, उसको लज़ायुत ईसह देख कर, उसने नि छरित कर लिया कि यह महावर का बिथरापन इसके फडः इसके फूडरपने के कारण नहीं है, प्रत्यत यह महावर प्रियतम के हाथ का लगाया हुअा है. अंर लाते समय कंप अस्तव्यस्त हो गया है । इस विचार से वह अन्य-संभाग-दुःखिता हो गई, और जो हँसी उसको अाई थी, वह पूरी भी न होने पाई, और उसने अाधी ही हूँ मैं दुःखच्छास लिया । सखी-वचन सखी से-- ( अर्थ )-सीत के पॉवों में विधुरा ( फैला ) हुअा जावक ( महावर ) देख कर [ वह मन में ] गाँस ( गुप्त भावना ) रख कर हँसी। [ पर फिर उसे सौत को ] लञ्जायुक्त हँसती स देख कर [ उसने ] अाधा ही हँसी में ( हँसी के बीच ही में ) [ खेद से ] ऊँवा श्वास लिया ॥ नायिका के दुःख का कारण यह अनुमान भी हो सकता है कि नायक सौत को मनाने के लिए उसके पाँवाँ पर पड़ा था, जिससे उसका जावक फैल गया है ।। मोसौं मिलवति चातुरी, हूँ नहिँ भानति भेउ । कहे देत यह प्रगट ही प्रगव्य पूस पसेउ । ५०८ ॥ | ( अवतरण )-नायक को देख कर नायिका को स्वेद साविक हुअा है । उसे छिपाने के निमित्त वह सर्ल से कुछ बात बनाती है। पर सखी उसके स्वेद से अनुराग लक्षित कर के कहती है ( अर्थ )-[ तेरे अंग में, नायक को देख कर, ] पूस महीने में प्रकटा हुअर ( प्रकट रूप से निकला हुआ ) पसेव ( प्रस्वेद, पसीना ) प्रकट ही ( स्पष्ट ही ) यह कहे देता है [ कि तू जो बातें बना रही है, वह त केवल ] मुझसे चतुराई मिलती है ( मेरी चतुराई से अपनी चतुराई का मिलान कर के अपनी चतुराई को अधिक ठहराया चाहती है ), [ और ] भेव (भेद, रहस्य की बात ) नहीं भानती ( फोड़ती, खोलती ) ॥ १. सहज ( २ ) । ३. लयो ( ३, ५) । ३. निकट ( २ )।